Sunday, February 27, 2011

क्यों नही बदला भारत का भाग्य

रवि शंकर मौर्य
अपने देश में गरीबी उन्मूलन की योजनाओं की कमीं नही है।उनके क्रियान्वयन के बाद हमे उनके बेहतर परिणाम ना मिलें।ऐसा भी नही है तो फिर क्यों नही बदल रहा भारत का भाग्य?क्यों नही मिट रही इस देश से गरीबी?इसका सीधा और स्पष्ट सा उत्तर है।नौकरशाही और भ्रष्टाचार इन दोनो बातों ने देश को खोखला कर दिया है। भारत की अन्तर्राष्ट्रीए मंच पर एक उभरती हुयी आर्थिक ताकत के रूप में प्रतिष्ठा है।लेकिन फिर भी आज हम अपने देश में कुछ एक अपवादों को छोड दे तो गरीबी में रह रहें लोगो को कुछ नही दे पाये है।अजादी के इतने वर्षो बाद भी गरीबों के हलात नही बदले। देश का कोई भी गरीब भूख से ना मरें ये जिम्मेदारीं सरकार की होती है।सभी की सुरक्षा का ध्यान रखतें हुऐ समाजिक आर्थिक समानता बनाने का प्रयास भी करना होता है।9 फीसदी के विकास दर वाला भारत आज भी भिक्षावृत्ति के मकडजाल में उलझा है। हमारें के सरकारी तंत्रों ने इनकों सिर्फ बढतें देखने के सिवाए कुछ और खास नही किया।और आज भिक्षावृत्ति एक धंधे की तरह है,जो वर्तमान समाजिक ढांचे से पोषित हो रहा है।वर्तमान सरकार ने गरीबी उन्मूलन के प्रभाव शाली नियन्त्रण के साथ ग्रामीण विकास की कल्पना की और हर साल गरीबी उन्मूलन के लिए आंवटन को बढाया गया। आप जरा सोच कर देखे या अपने पास के दो चार गांवों में जा कर ईमानदारी से देखें।क्या वाकई में इन ग्रामीण विकास की योजनाओं ने कार्य किया है?जमीनी हकीकत तुरंत ही साफ हो जाऐगी।मै गरीबों की बात क्यों कर रहा जब उनसे बत्तर स्थित में मध्य वर्ग है।गरीबों को तो केवल खाना चाहिए,जो वे भिक्षावृत्ति कर पा ही लेतें है। मध्य वर्ग की क्या स्थित है,समाज में ये स्पष्ट है। उन्हे रसोई गैस को लेने से लेकर अपनी सेलरी निकालने के लिए बैंकों आदि हर जगह लाइन लगाना पडता है। उन्हें 24 घंटें बिजली नही मिलती,शहरों में भी कमांेवेश यही हाल है। विद्युत विभाग के चीफ इंजीनिएर,एईएन,जेईएन आदि लोगों से समझना चाहें की ऐसा क्यों हो रहा है। क्या शहर के खर्च के बराबर बिजली आपको नही मिलती। तो उनका जबाब कमाल का होता है। तमाम तकनीकी बहानों से अपने पल्ले को झाड कर अपने को गौरवान्वित महसूस करते है,ये अधिकारी। और जब इनसे ये पूछा जाता है, कि सरकारी भवनों के इतना बिल क्यों बकाया है। तो बोलती बंद हो जाती है, क्यों कि सरकारी भवनों के बिजली बिल उन सरकारी विभागों की कृपा पर ही निर्भर करते है।खैर देश की स्थित इतनी सोचनीय है, कि उसका कोई अन्त नही। गरीबों को तो पता भी नही की उनके लिए गरीबी उन्मूलन के कौन कौन से कार्यक्रम चलाऐ जा रहें है।तो गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों के लाभ उन तक क्या पहुचेंगे। कई राज्य सरकारें इतनी कमाल की है कि वो गरीबी उनमूलन के लिए मिला धन वैसे का वैसे लौटा देतीं है।वे फंड को तथाकथित मद में खर्च करने की जेहमत भी नही उठाती।अब ऐसी अक्षम सरकारों से हम क्या सोचे गए लक्ष्यों को पा सकते है। सच तो ये है,ये सभी कुछ भूख कराती है।गरीबों ने भिक्षावृत्ति की भूख बढा कर देश को खोखला किया तो तथाकथित बडें लोगो ने पूंजी का केन्द्रीकरण कर और बडे बडे घोटालों की भूख में देश को खोखला किया। और देश में बढ रही महगाई से सर्घष करता जूझते मध्य वर्ग की बुरी स्थित। और अपनी जिम्मेदारी से इंकार करते लोग,सतही तौर पर यही कारण है,कि नही बदल रहा है भारत का भाग्य।
लेखक पत्रकारिता से जुडें है, ये 2006 में हिन्दी से परास्नातक व 2009 में पत्रकारिता से परास्नातक की पढाई पूरी कर पत्रकारिता के पेशे से जुडे।इन्होने दूरर्दशन व जी न्यूज से ट्रेनिंग के बाद खोज इंडिया न्यूज में बतौर प्रोडूसर काम किया।इसके पश्चात इन्होने राजस्थान के कोटा शहर में दैनिक नवज्योति व दैनिक भास्कर के लिए रिर्पोटर के तौर पर काम किया है। लेखक का मीडिया के तमाम विषयों पर लेखन रहा है। लेखक से ravism.mj@gmail.com मेल आई डी के जरिऐं सम्पर्क किया जा सकता है।Ravi Shankar Maurya
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बाज़ार है या की पत्रकरिता - रवि शंकर मौर्य

कोई सभ्यता हो या फिर कोई पेशा,या कि फैशन सबके चर्मोकर्�ा का समय आता है। ये उत्कर्�ा उसके फिर से शुरूवात का भी संकेत होती है। आज कल मीडिया को लेकर शांत बहस चल रही है।�ाांत बहस इसलिए कि सभी मीडिया संस्थान के लोग जी भर कर मीडिया के अधिकारों पर बात करना चाहते है। लेकिन अपने दायरे मे रहते हुए कोई पहल नही कर पा रहा है।ऐसा इसलिए है,क्योंकि आज का पत्रकार वो मजबूर चीज है,जिसे केवल बिकने लायक समाचार देना होता है। और अपनी नौकरी बजानी होती है। और ना कुछ सोच पाता है, ना करना ही चाहता है। अगर नौकरी चली गयी तो क्या खिलाएगा अपने परिवार को। मै बात कर रहा हूं , कि हर मीडिया कर्मी आज बोलना चाहता है। मीडिया के अधिकारों के बारे में क्यों कि पेड न्यूज या कारपोरेट के दलाली में हर पत्रकार नही शामिल है। लेकिन पहले मै कहना चाहूंगा ऐसा क्ंयू होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि आज भारत में पत्रकारिता का बाजार दुनिया में एक बडा बाजार है। कहने का मतलब है,भारत अखबारों का सबसे बडा बाजार है। 107 मिलियन अखबार यानि 10 करोड 7 लाख अखबार रोज बिकते है भारत में। और देश में छोटे बडें मिला कर 417 चैनल। इसके अलावा बेब मीडिया भारत में सशक्त हो रहा है,अपनी आवाज पूरे विश्व में बुलंद कर रहा है। तो ऐसे में भारत मीडिया को लेकर एक बडा बाजार है, लेकिन सच्चाई ये है ,कि बाजार है मीडिया जहां खबरे बिकती है।पत्रकार बिकने वाली खबरे ही चाहता है क्योंकि उसका संम्पादक उससे बिकने लायक खबर ही मांगता है। अच्छा ले आउट,बिकने लायक बिजुअल,अच्छी एडीटिंग और ना जाने क्या क्या ये ही सभी आज की पत्रकारिता है। क्योंकि आज के समाचार चैनलों या फिर समाचार पत्रो की ये ही सच्चाई है,कि पंच लाइन तो खरी खबर या सच्ची खबर हो सकती है,लेकिन उसी समाचार पत्र या चैनल का मालिक या सम्पादक या फिर प्रोडूसर या न्यूज रूम हेड ये कहता मिल सकता है कि अरे यार इनकी खबर क्यों हाईलाइट कर रहें हो। इनसे तो विज्ञापन मिलता है। अब जब विज्ञापन के लालच में एक अखबार का मालिक या संपादक किसी फर्म या किसी व्यक्ति के खिलाफ समाचार छापने से पीछे हटता है। तो स्पष्ट है ये ही लोग पैसे लेकर समाचारों को छापते भी है,और इन्ही लोगो के कारण पत्रकार व पत्रकारिता बदनाम भी हो रही है।गौर तलब है ना तो सभी पत्रकारों की हिम्मत ही होती है पैसा उगाही की ना उनको लोग पैसा देते ही है। ये पैसा उगाही का काम तो एडीटरों या बडे प्रोडूसरों का ही है जो बेकार मे पत्रकारोें के सर अपना पाप मढतें है। और उन समाज के लोगो का भी जो इस खबरों की दलाली करने के लिए एक पत्रकार को पैसे से फासते है। आज कोई ऐसा पेशा नही है। जो साफ दामन हो। हर जगह करप्सन फैला है,पत्रकार को एक मीडिया चैनल या समाचार पत्र क्या देता है। 18 घंटों का काम करवा कर 6 से 25 हजार रूपए की सेलरी। फिर जब उसे समाज के लोगो से कोई पैसे का आफर मिलता है,तो वो ऐसा काम करता है। और पत्रकार भी समाज का हिस्सा होता है। मै ये नही कह रहा कि पत्रकारों द्वारा की जा रही पेड न्यूज सही है।मै ये कर रहा हमारा समाज ही पतन की ओर उन्मुख है। पत्रकारिता ही नही हर पेशा दागदार हुआ है और इन सभी का कारण समाज के नैतिक मूल्यों का पतन है।जिसकी जिम्मेदारी अकेले पत्रकारिता की नही थी।पत्रकारिता भी जिम्मेदार है।उतना ही जितना कि आप हम और हमारे समाज की। हालाकिं सच उजागर है,मै उस सच पर तो चर्चा नही करना चाहता ,कहना ये चाहता हूं , कि पत्रकार संपादक ,प्रोडूसर या फिर मीडिया संस्थानों के मालिक पेड न्यूज से हाथ इसलिए रंगते है। क्योकिं अर्थ के मोह में कौन नही फसता,सभी फसते है, कोई कम कोई ज्यादा । इसलिए आज मीडिया जब कि अपने चर्मोत्कर्ष पर है , मीडिया के लोगो को अपने समाज के बारे मे सोचने की ज्यादा जरूरत है। और वो भी खास कर युवाओं को क्योंकि मीडिया के युवाओं की जिम्मेदारी बढ जाती है अपने समाज को लेकर। पेड न्यूज को खत्म करना है,तो युवाओं को ही कुछ करना पडेगा।

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Tuesday, February 15, 2011

आम सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता

पत्रकारिता के माएने बदल चुके है,ये बात अक्सर सुनने को मिलती है।जब कभी पत्रकारिता के महारथियों से आज की पत्रकारिता के विषय में पूछा जाता है।तो उनका यही जबाब होता है,कि पत्रकारिता में विज्ञापन,पैसे,बाजार का महत्व बढा है।किन्तु पत्रकारिता आज भी आम सरोकारों को लेकर चलती है।लेकिन सवाल ये है, कि क्या आज पत्रकारिता के माएने बदल चुके है?क्या वाकई पत्रकारिता के मूल्यों मे बदलाव हुआ है? नही साहब पत्रकारिता आज भी जन सरोकारों के साथ है। पत्रकरिता के ना तो मानक बदले है।और ना ही बदलेगें क्योंकि अगर पत्रकारिता के मानक बदल गए तो फिर वो पत्रकारिता नही रह जाएगी।ऐसा ज्यादातर मीडिया मठाधीष कहते मिलेगें,लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है।पत्रकारिता में बाजारबाद बढा है,दिखावा बढा है। आज पत्रकारिता जगत का परिवेष,मूल्य,आदर्श,और वातावरण सभी में अमूलचूक परिवर्तन हुए है। लोगो ने आज पत्रकारिता को अपने निहित स्वार्थो के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया है।आज पत्रकारिता एक बडा बाजार है,उस बाजार ने तमाम पत्रकारिता के महारथियों का जमीर खरीद लिया है।वे वही बोलते,लिखते,सोचते व समझते मिलतें है,जो उन्हे बाजार दिखाता है।अध्ययन,स्वाध्याय से दूर ये पत्रकार क्या सोचेगें पत्रकारिता व उसके मानकों के बारे मे?आज अखबारों व चैनलों पर पूजीपतियों का कब्जा है,और वे अपनी पूंजी को बढानें के निहित स्वार्थो को लेकर पत्रकारिता का दुरूपयोग करते है। पत्रकारिता के धौस में ना जाने अपने कितने आर्थिक व अन्य मंसूबों की पूर्ति करते है। लेकिन कुछ और बडे प्रश्न है कि आज के समाचार पत्र व चैनल जो कुछ छाप रहें है या फिर प्रसारित कर रहें है क्या उसे पत्रकारिता कहा जा सकता है? पत्रकारिता से जुडें लोगों की स्थित हालात देखकर,क्षेत्रीय व स्थानीए पत्रकारिता की दुर्दशा देख कर क्या पत्रकारिता के बदले मायनों को क्या नही समझा जा सकता?
अगर ईमानदारी से यर्थाथ का चश्मा लगा कर देखने समझने का प्रयास किया जाए तो सभी कुछ आइने की तरह साफ है।आज की पत्रकारिता कोई समाज को दिशा देने चेताने वाली पत्रकारिता नही है।व्यवसायीकरण के दौर में एक अखबार दूसरे अखबार से, व एक चैनल दूसरे चैनलों से गलाकाट प्रतियोगिता कर रहा है।सर्कुलेशन,टी आर पी व विज्ञापन के लिए वे क्या कुछ नही करते।
सभी पत्रकार कमोबेस इन बातों को जानते समझते है,और सभी इन अखबारों व चैनलों के व्यवसायी मंसूबों को आम सरोकारों को नजर अन्दाज कर पोषित करते है।ज्यादातर समाचार पत्रों मे आधे से ज्यादा अखबार विज्ञप्तियों व विज्ञापनों से भरा मिलता है।व समाचारों की गुणवत्ता में कमी साफ दिखाई देती है। पेड न्यूज,कृपा राशि आदि के आंचल में कैसे और कौन सी न्यूज विश्वसनीए होगी। सोचने का विषय है,आज ना सिर्फ पूंजीपति ही बल्कि राजनेता भी अपने मंसूबों को पत्रकारिता के माध्यम से पोषित करते है।इन आकांछाओं की पूर्ति लिए चैनल मालिक,डेस्क इंचार्ज,संपादकों,रिर्पोटरों आदि को कृपा राशि का भुक्तान किया जाता है। आज की संवेदना विहीन पत्रकारिता से क्या किसी मानकों या मूल्यों की अपेछा की जा सकती है।जब संवेदना के विषयो को चटखारें लगा कर,सनसनी बना कर पेश करना आज के युग की पत्रकारिता है। और उस संवेदना विहीन खबर की जिम्मेदारी बाई लाइन या साइन आफ के लिए ही समाज,देश व पत्रकारिता किसी के मर्यादाओं को ना ध्यान रख कर लिया जाए। तो स्थित आम सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता को स्पष्ट कर देती है।

http://mediamanch.com/Mediamanch/Site/HCatevar.php?Nid=1119

http://www.mediakhabar.com/index.php/media-article/media/1662-journalism-public-interest.html

Tuesday, February 8, 2011

नहीं बची है भारतीय मीडिया में गरिमा

पिछले कुछ वर्षो में भारतीय मीडिया ने जो कुछ झेला वो शायद किसी और देश की मीडिया ने नहीं झेला होगा। खबरों की गरिमा में कमी, पेड न्यूज, मीडिया के लोगों की तमाम अपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता और ना जाने क्या-क्या पिछले कुछ सालों में मीडिया की उपलब्धियां रही। भारतीय मीडिया के लोग अपने खबरों का सबसे बड़ा ऐविडेंस तस्वीरों को व विजुअल को मानते हैं। किन तस्वीरों को प्रकाशित करना है, किन विजुअल को ऑन एयर करना है, इसकी समझ मीडिया के काम कर रहे लोगों में शायद नहीं है या आवश्यकता से अधिक मार्डन हो गयी है भारतीय मीडिया। तभी तो सहारा के लोगों द्वारा समाचारों में गालियों का इस्तेमाल और ईटीवी ब्लू फिल्म जैसे विजुअल आन एअर कर दे रहा है। लाइव रिर्पोटिंग के नाम पर फेक विजुअल आज भारतीय मीडिया की हकीकत हो गयी है।


कहीं शहर में बाढ़ आ गयी तो यदि उस घटना के विजुअल भी चैनल के पास नहीं है, तो भी उस खबर को बिना विजुअल के नहीं प्रसारित करते। पुराने फुटेज में तोड़ मरोड़ कर कहने का मतलब है, पुराने लाइब्रेरी फुटेज को इतना एडिट कर देते है कि कोई पहचान ना पाए और इस तरह के विजुअल आन एयर कर दिए जाते हैं। सभी चैनल ऐसा कर रहे हैं, मैं किसी एक चैनल की बात नहीं कर रहा। ये सभी चैनल अपने समाचार स्रोतों और एपीटीएन, राइटर आदि की खबरों के अलावा यू टयूब के विजुअल का भी इस्तेमाल कर लेते हैं। हादसों की रिर्पोटिंग मे अगर विजुअल कम समय के हैं तो उसे लूप में लगा कर तरह-तरह के वीडियो इफेक्ट डाल कर उसे घटना के बराबर भयावह बनाकर लाइव पेश करते हैं। खास कर वर्ल्‍ड न्यूज के कार्यकमों में दुनिया की कमोबेश झूठी तस्वीरें टीवी पर देखने को मिलती हैं।

मै कहना ये चाहता हूं क्यूं हम तस्वीरों को ही खबर बनाते जा रहे हैं? मीडिया इतनी सशक्त हुई कि आज फोटो जर्नलिज्म का युग है। मैं ये नहीं कह रहा फोटो छापना गलत है। कहना ये चाहता हू कि बिना सोचे बिचारे कोई फोटो छापना गलत है। किस फोटो का क्या इम्पैक्ट समाज के उपर क्या पड़ रहा है? कौन सी फोटो जरूरी है? इन सब बातों का ध्यान रखना जरूरी है। कितने ही अखबारों ने भोपाल गैस कांड की प्रतीकात्मक तस्वीरें छापी थीं। कारण वे मरने वाले लोगों का अनादर नहीं करना चाहते थे। क्या इसी गरिमा का पालन हादसों की रिर्पोटिंग में नहीं की जा सकती? किसी मंदिर के भगदड़ या फिर किसी भीषण दुर्घटना में मरे लोगों के विजुअल या कि किसी आपदा में मरे लोगों की लाशें दिखा कर हम पत्रकारिता के किस धर्म का पालन कर रहे हैं? क्या हम लाशों की वीभत्स तस्वीरें छापने से ही अपना पेट पाल रहे हैं। और इनको छाप कर कौन सी खबर के प्रमाण की पुष्टि होती है, जो ऐसे फोटो ना छाप या विजुअल के बिना समाचारों को प्रसारित कर या प्रतीक का इस्तेमाल करके नहीं होती।

समाचारों की हड़बड़ी या बुलेटिन की जिम्मेदारी में हम भूल जाते है अपने पत्रकार धर्म की जिम्मेदारियों को। किसी बुलेटिन की कोई खबर आन एयर नहीं हो पाई या फिर समय से अखबार का पेज नहीं छूटा, इन बातों की टेंशन तो हम रोज ही लेते हैं। अपने जिम्मेदारियों को जरा सा भी अपना लें तो देश समाज की जो दशा होती जा रही है, उसमे बदलाव धीरे-धीरे दिखाई देने लगेंगे। जरा ईमानदारी से सोचें शोकग्रस्त परिवारों, बुरी हालत की लाशों के विजुअल दिखा कर क्या हम अपने स्वतंत्रता का गलत फायदा नहीं उठा रहे? या कि हम भी उतने ही क्रूर नहीं होते जा रहे? क्या हम हादसों, दुर्घनाओं की रिर्पोटिंग मे गरिमामय परम्परा का पालन नहीं कर सकते। अगर नहीं और यही है आज की पत्रकारिता तो भारतीय मीडिया में नहीं बची है गरिमा।

लेखक रविशंकर मौर्य कोटा में पत्रकार हैं.

http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/1009-2011-02-04-07-48-33.html

महिला सश‍क्‍तीकरण और मीडिया का नजरिया

एक विचारणीय मुद्दा है 'महिला सशक्‍तीकरण'। इस दुनिया की आधी आबादी महिलाओं की है। महिला मां होती है, बहन होती है, पत्नी होती है, दोस्त होती है, सारे रिश्ते महिलाओं के बिना संभव नहीं हैं, फिर भी आज समाज में महिलाओं की स्थिति बड़ी ख़राब है। आज के समाज में महिलाओं ने ये सिद्ध कर दिया है कि वो तमाम सारे कार्य जो पुरुष कर सकते हैं महिलाये भी कर सकती हैं और पुरुष से बेहतर कर सकती हैं। बात मैं पुरुष या नारी की योग्यता की नहीं कर रहा।बात मैं कर रहा हूं, महिलाओं के संबंध में समाज की और मीडिया के लोगों के नजरिये की। क्या समाज का चश्‍मा पहन कर मीडिया के लोग महिलाओं को देखते हैं? जब महिला सशक्‍तीकरण की बात हो और कुछ मीडिया के जिम्मेदार लोग यह कहते मिले, 'जो दिखता है वो बिकता है' तो स्थिति और आधिक नाजुक हो जाती है। या फिर मीडिया के कुछ लोग ये कहते मिलें, 'लोग जो देखना चाहते हैं, हम उन्हें वही दिखा रहे हैं', ऐसे में ये तो स्‍पष्ट है कि ऐसे लोग नारी के देह की बात कर रहे होते हैं। इनके इस सोच का स्तर इतना निम्न इसलिए होता है क्योकि ये समाज, व्यवस्था, बाजार, व पुरुषवाद के पीछे से इस बात को मंचों से सरे आम कह रहे हैं और इन्हें अपनी इस विकृत सोच पर जरा भी शर्म नहीं आती है।

पुरानी मान्यताएं टूटती हैं, नई सामाजिक मान्यताएं समाज में बनती भी रही हैं। ऐसे में मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि पग-पग पर समाज का उचित दिशा निर्देशन करे ना कि अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़े। मीडिया आज बाज़ारवाद के हत्थे चढ़ गयी है, सच्चाई यही है और इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन मीडिया के लोग फिर भी अपना पल्ला समाज से नहीं झाड़ सकते। मीडिया के लोगों को नैतिकता को ध्यान में रख कर समाज का ध्यान रखना है, क्यूंकि हमारी भूमिका से समाज प्रभावित होता है। एक रोज देश के एक प्रसिद्ध पत्रकार ने मुझसे कहा, "हम बनिए की नौकरी करते हैं, हम खबर बेचते हैं, अगर बिकने लायक खबर नहीं ला सकते तो बाहर कर दिए जायेंगे।" मन में बड़ा गुस्सा आया, ये व्यक्ति तो अपनी पत्रकारित की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहा है किन्तु बिडम्बना यही है, अधिकांश लोग पत्रकारिता में आज केवल अपनी नौकरी बजा रहे होते हैं, सही है आज पत्रकार बनिए की नौकरी करते हैं, पर देश व समाज के प्रति उनकी अहम जिम्मेदारी होती है, जिससे वो इनकार नहीं कर सकते है। ऐसा नहीं कि नारी को समाज में स्थान दिलाने के कोई प्रयास नहीं हुए, लेकिन ये प्रयास कितने नाकाफी रहे हैं, ये समाज महिलाओं की स्थिति देखकर स्‍पष्‍ट हो जाती है।

जब मीडिया के लोग तमाम बहानों के पीछे अपनी जिम्मेदारी से इनकार कर दें, बनिए की नौकरी बता कर खुद बनियों जैसा कार्य करने लगें तो समाज को इन बनियों के हाथों बिकने से कौन रोक पाएगा? क्या इन लोगों को ये नहीं सोचना चाहिये कि इनके इस कृत्‍य से समाज कितना प्रभावित होता है, परिवार के लोग एक साथ बैठ कर परदे के माध्यम से परोसी जा रही फुहड़ता को कब तक झेल सकते हैं, बच्चो पर ये क्या प्रभाव डालते हैं? लेकिन बनिया तो केवल अपना लाभ देखता है, बनिए का नौकर क्यों सोचने लगा समाज के बारे में? समाचार-पत्रों या चैनलों की कमाई में विज्ञापनो का अहम रोल होता है। जिसमें नारी के देह का अनावश्यक प्रयोग अंग प्रदर्शन होता है। पूछे जाने पर कि ऐसा क्यूं होता है? ऐसा जरूरी है मीडिया के लोगों की रोजी-रोटी चलती है, लोग देखना चाहते है ....! और पता नहीं क्या क्या जबाब देते हैं। जबकि सच्‍चाई यह है कि चैनल टीआरपी के लिए कुछ भी दिखा देते हैं।

लेखक रविशंकर मौर्य कोटा में पत्रकार हैं.

http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/787-2010-11-20-03-36-10.html

कैसे-कैसे कार्यक्रम, कैसी ये पत्रकारिता!

टीआरपी को लेकर टीवी चैनल कितने खासे उत्साहित व हर वो कार्य करने को तैयार रहते है, जिससे कि उनके चैनलों की टीआरपी बढ़े। कुछ दिन पहले एक चैनल ने एक प्रोग्राम दिखाया था। ज्योतिषी, वैज्ञानिक व तर्कशास्त्री को लाइव लेकर ये कार्यक्रम बना था। इसको देख कर मुझे जितना गुस्सा आ सकता था, आया था। प्रोड्यूसर ने समाज सेवा के मंशा से कार्यक्रम को बनाया था। कुछ दिनों पहले इसी विषय पर एक कार्यक्रम तो स्पेशल कार्यक्रम था। समाज सुधारने की मंशा तो खैर तारीफ की चीज है। लेकिन इन प्रोगामों को लेकर मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि ऐसे कोई कार्यक्रम समाज में कोई प्रभाव डालते हैं। हां अगर उस कार्यक्रम की कोई चीज प्रभाव डाल रही थी, तो शायद उस कार्यक्रम मे एंकर, ज्योतिष व तर्कशास्त्री जिस तरह से तर्क के बहाने झगड़ा कर रहे थे, यही बात सबसे ज्यादा प्रभाव डाल रही थी। और वो भी इस बात ने बच्चों के दिमाग को ज्यादा प्रभावित किया होगा।


आज समाज बदल चुका है। इस बात का प्रभाव भी टेलीविजन कार्यक्रमों में साफ दिख रहा है। वर्षों पहले कभी हम समाज का आईना जिसे समझते थे वो बुद्धू बक्सा आज होशियार हो गया है। और समाज को अपने हिसाब से चला रहा है। एक और चैनल के एक कार्यक्रम की बात करूं तो साहब ये चैनल खासा नामी है। और अपने घटिया प्रोग्रामों के बावजूद टीआरपी को लेकर नं 1 की पोजिशन पर बना रहता है। इस चैनल के खिलाफ नहीं हूं मैं। बल्कि कहना ये चाहता हूं, कितना घटिया कार्यक्रम दिखाते हैं आज के सभी चैनल। ये कार्यक्रम भी एक तर्कशास्त्री, तांत्रिक व ज्योतिषी का था, जो कई एपिसोडों में तंत्र को आडम्बर बताते हुए एक स्वामी, तांत्रिक व ज्योतिषी को लेकर बना था। इसमें में वही बात है एंकर, ज्योतिषी, तर्कशास्त्री सभी लड़ते से लग रहे थे। मैं ऐसे कार्यक्रमों के लिए प्रोड्यूसर या किसी और को दोषी नही मानता। क्योंकि मैं जानता हूं आज के इन न्यूज चैनलों के अन्दर की स्थिति कारपोरेट कल्चर के नाम पर शोषण का इतिहास बनाने वाले ये चैनल और दिखा ही क्या सकते हैं। जब न्यूज रूम में दुनिया भर की राजनीति होगी तो कैसे कार्यक्रम बनेंगे। ये चैनल भले ही इस कार्यक्रम को मिशन की तरह अपनाकर, उसे अपने चैनल पर चला कर भले ही अपनी पीठ ठोंक लें। लेकिन सच्चाई यही है कि आज क्या कुछ ये चैनल परोस रहे हैं। इस पर सोचने की जरूरत है।

ऐसा नही है कि अच्छे कार्यक्रम या अच्छे विषयों पर कार्यक्रम नहीं बनते। बनते हैं और उन्हें दर्शक इतना देखते हैं कि रिकार्ड टूट जाता है। पर चैनलों पर ज्यादातर सीरियल या कार्यक्रम घटिया होते हैं। यही कारण हैं आदमी का हाथ रिमोट पर ही रहता है। और इन घटिया प्रोग्रामों को बनाने वालों से अगर इन कार्यक्रमों के बारे में पूछा जाए तो अपने कार्यक्रम की तारीफ के पुल बांधते नही थकेंगे। इनका कहना रहता है लोग देखना चाहते है तो हम इस तरह के कार्यक्रम बनाते हैं। अरे ये खासे गदहे होते हैं जो ये राग अलापते हैं। आज तक किसी भी अच्छे विषय पर बना कोई भी सीरियल या कोई कार्यक्रम ऐसा नहीं हुआ जिसे लोगों का प्यार ना मिला। युवा, बुर्जुग, महिलाऐं, बच्चें सभी ने सराहा है ऐसे कार्यक्रमों को, जो अच्छे विषयों पर बने। लेकिन अयोग्य लोगों की माया है कि ऐसे कार्यक्रम देखने को मिलते हैं टीवी पर। कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, जो चैनलों के अन्दर की राजनीति में अपना सारा ज्ञान भूल जाते हैं। वे ऐसे कार्यक्रमों को लेकर कोई भी राय नही रख पाते। कुल मिला कर तो आज की इलेक्‍ट्रानिक पत्रकारिता जब प्रभु चावला, बरखा दत्‍त को बेच सकती है तो किसी को भी बेच सकती है। जो आर्दशवादी हैं कहने का मतलब पत्रकार हैं, इस सिस्टम में फिट नहीं बैठते। तो दलालों व अपनी नौकरी बजाने वाले उल्लुओं से कैसे प्रोग्राम देखने को मिलेंगे। वे कैसी पत्रकारिता की हम उम्मीद कर सकते हैं।

लेखक रविशंकर मौर्य कोटा में पत्रकार हैं.

http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/921-2011-01-05-07-01-38.html