Monday, December 24, 2012

मीडिया का गला घोटना चाहती है सरकार ?

क्या कैमरों को तोड देने से आवाज दब जायेगी। कितने मूर्ख है हमारे देश के नेता जो ऐसा आदेश देते हुए एक बार भी नही सोचते कि सही मायने मे मीडिया का स्वर्ण युग अब शुरू हुआ है। क्योंकि अब हर व्यकित पत्रकार है। पत्रकारिता की ये परिभाषा नयी मीडिया ने दी है। रविवार को निहत्थे लोगों और मीडिया पर पुलिसिया हमले को लोकतंत्र पर हमला क्यूं ना माना जाए? आखिर ये हमला अपराध क्यू ना माना जाए।जब सब दिल्ली पुलिस के जवानों ने अपने बैच खोल रखें थें। एन डी टी वी के जांबाज पत्रकार उमा शंकर सिंह ने आर पी एफ के आला अधिकारी से मौके पर पूछा कि लाठी के बूते आप करना क्या चाहते है? तो अधिकारी को जबाब नही सूझा और वो भागते फिरे। महिलाओं बच्चों और निहत्थे लोगो पर लाठियां। और वो भी मीडिया को निसाना बनाने के साथ, तो कर्इ बडे सवाल खडे होते है? 
आखिर मीडिया को निशाना क्यूं बनाया गया?क्या ये लोकतंत्र के चौथे खम्भें को डिगाने की कोशिश तो नही?लाठी से देश की आजादी भी नही मिली थी। महात्मा गांधी ने भी अंहिसा के रास्ते पर ही आजादी पार्इ लेकिन देश की पुलिस व्यवस्था की तानाशाही और आवाज दबाने की कोशिशे अंग्रेजों से ज्यादा क्रूर लगती है।इस घटना से जुडी तमाम तस्वीरों को देखा। एक फोटो मे एक पुलिसवाला एक महिला को मार रहा है। दूसरे फोटो मे एक सत्तर साल की बुढिया जमीन पर गिरी है और बगल मे उन्नीस बीस साल की बच्ची खडी है और पास ही मे एक पुलिस वाला डंडे से बूढी औरत को मार रहा है। ऐसी बहुत सारी तस्वीर देखी। यकीन मानिऐ मन गुस्से और वेदना से भर गया कि हम ऐसे देश मे रहते है।जहां कोर्इ सुरक्षा नही और जिस देश को सत्याग्रह के बल पर आजादी मिली हो। वहां निहत्थों पर लाठी, मीडिया को डरा कर, कैमरें तोड कर आवाज दबाने का प्रयास उस पर जख्मों पर नमक गृहमंत्री का बयान कि रूस के राष्ट्रपति आ रहे है इसके चलते उनके सामने देश की गलत छवि ना जाए। इसलिए ये क्रूरता पूर्ण कृत्य किया गया। ठंडक में लोगो को पानी से लोगो को नहलाया। मीडिया के लोगों को पानी से नहलाया कैमरों पर पानी की बौछार की। यही बात एक बार गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे शालीनता से जनता से एक बयान मे कह देते कि वो जनता की भावना समझते है।और कडी से कडी कारवार्इ की जाऐगी और दोषियों को कडी से कडी सजा मिलेगी तो यकीन मानिये। जनता लौट जाती लेकिन इन्हे तो ये कहने मे लाज आती है,गृह मंत्री है।

बालात्कारियों के लिए कडी सजा की मांग के लिए निकले लोगों पर लाठियां चलाकर पुलिस ने लोगो को भगाया नही है। इस देश के नागरिक अधिकारों पर भी प्रश्न उठा दिया है। जहां के वो भी नागरिक है।क्या शांतिपूर्ण प्रर्दशन करना एक लोकतांत्रिक देश मे अपराध है? क्या मीडिया वहां रिपोटिंग के अलावा कुछ और कर रही थी?जानबूझ कर कुछ उपद्रवियों को हटाने के बहाने दिल्ली पुलिस के जवानों ने निहत्थे लोगों व मीडिया पर हमला बोला। ये उनका इस प्रर्दशन से निपटने का तरीका था।

दिल्ली क्या पूरा देश असुरक्षित है। और अपराध को बढाने का श्रेय पुलिस महकमा को जाता है क्योकि ये पूरी तरह से अपराधी है,क्योकि पुलिस का प्रशासन नेताओं के आगे नतमस्तक है।उन्ही के इसारे पर ये नाचते है। और ये अपराध ही है कि बिना बैच के पुलिस के जवान ऐसी बर्बरता पूर्ण कारवार्इ करे। क्या ये पुलिस की वर्दी का अपमान नही? कि बिना बैच के ऐसे कार्य सिर्फ इस भावना से किए गये कि आला नेता का आदेश था। किसके आदेश पर ये कारवार्इ की गयी।इस घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए कौन अपने पद को छोड रहा है? इंडिया गेट को चारों तरफ से घेर कर स्कूली छात्र छात्राओं बुजुर्गो के साथ मीडिया पर लाठियां चलाने का अधिकार पुलिस को किसने दिया?क्यूं मीडिया कर्मियों पर लाठी चलार्इ? जाहिर सी बात है आवाज दबाने का प्रयास साफ दिखता है। क्या मीडिया का गला घोटना चाहती है सरकार? अगर हां तो लडार्इ आर पार की करें ना छुप छुप के लडने का क्या मजा? आये मैदान मे प्रेस की स्वतंत्रता पर रोक लगा कर।यकीन मानिये एक बार और आपातकाल घोषित कर प्रेस के अधिकारों को छीन कर देख ले इस देश का हर आदमी सिर्फ सिर्फ पत्रकारिता करता नजर आयेगा उस दिन। क्योंकि आज वो अपनी बात एक नही बहुत सारे माध्यमों से लोगों तक पहुचा सकता है। और बातों को कम्यूनीकेट करना ही मीडिया का मूल काम है इससे अतिरिक्त कुछ नही। और आज ना वो अपने कुकृत्यों को दबा सकते है ना तो लोगों को आलोचना करने से। थू है देश की पुलिस पर व शर्म है दिल्ली सरकार व गृह मंत्री पर एक पत्रकार मित्र का स्टेटमेंट फेसबुक स्टेटस पढियें 

" पुलिस वालो ने आज इन्तहा कर दी है बड़े क्या बच्चे सब को मोटे मोटे लट्ठो से जम के मारा हैं सवेरे से ये आंसू गैस और पानी से वार करते रहे फिर अँधेरा होते ही सभी मीडियाके कैमरे तोड़ दिए या बंद करा दिए पूरे इंडिया गेट को चारो तरफ से घेर लिया ताकि हम भाग न सके और अचानक से हम पर टूट पड़े 

अफरातफरी मच गयी जवान लोग तो भाग खड़े हुए लेकिन 14.15 साल के बच्चे भी वहां थे उन पर इन दरिंदो ने मोटी मोटी लाठियों से सर और छाती पर मारा अगर कोई महिला याबूढा गिर गया तो भी उसपर लाठिया बरसाते रहे मेरे सामने एक पुलिसवाले ने एक महिलाकी छाती पर 4 बार डंडे से मारा महिला गिर गयी हम दोस्त सब उसे बचाने भागे और पुलिस को खीच के हटाया व महिला को उठाया भाई फिलहाल अस्पताल में हूँ एक दोस्त का सर फट गया हैं उसी का इलाज करवा रहा हूँ मेरे पैर में काफी चोट आई है पूरा बदन लाल है लाठियों के कारण "

साफ है कि आवाज दबाने की कोशिश की जा रही है क्या ये बलात्कार नही है ? नागरिक अधिकारों का बलात्कार। लोकतंत्र के चौथे खम्भें का बलात्कार। अब ये लडार्इ सिर्फ बलात्कार के एक शर्मिदा करने वाले कुकृत्य तक ही सीमित नही रही है। पुलिसिया डंडे मीडिया के अधिकारों व नागरिक अधिकारों तक के हनन के दोषी है। ये लडार्इ अब सरकारी दमन तंत्र, राजनीतिक पार्टियों की चुप्पी को भी दिखा रही है। ये कोर्इ नया कार्य नही किया है पुलिस ने जो हमे चौंका दे।हमारे देश की पुलिस का यही क्रूर चेहरा है। जो लम्बे समय से तमाम इलाकों मे गांवों मे जंगलों मे अपने जमीनों या हक की लडार्इ लड रहे लोगों पर शहरों मे तमाम अत्याचार करते रहे है। अगर इस देश का प्रशाशन नागरिकों को नागरिक नही समझेगा । मीडिया को उसका कार्य करने से रोकने की कुचेष्ठा करेगा और उनके अधिकारों का हनन करेगा तो लोकतंत्र मे ये बात स्वीकार के योग्य नही है। अभी तो कुछ युवा जागेगे है अभी और जागेगे मीडिया व नागरिक अधिकारों के हनन का जबाब तो देना ही पडेगा सरकार को। 

पुण्य प्रसून के साख पर दाग लगाने के बाद हिन्दी पत्रकारिता की चुनौतियां


हिन्दी पत्रकारिता के नए हालात और चुनौतियां


साल 2012 का आखिरी महीना चल रहा है। पिछले साल की तरह ही ये साल भी कुछ खास नही रहा है, हिन्दी पत्रकारिता के लिए। हिन्दी पत्रकारिता मे जिस तरह सच और खरा बोलने वालों की संख्या तेजी से कम हुयी है। उसी तरह हिन्दी पत्रकारिता की धार कुंद होती चली गयी है व साख को घुन लग गया है। अभी प्रभूचावला व बरखा दत्त को हम भुला नही पा रहे थे कि जी न्यूज के समीर अहलूवालिया व सुधीर चौधरी की कारगुजारी पचाऐ नही पच रही। और उस पर पुण्य प्रसून का इन लोगो का पक्ष लेना, खुद पुण्य प्रसून के साख को दाग लगा गयी।
हिन्दी पत्रकारिता के ये नए हालात नयी चुनौतियों को पेश कर रहे है। जिसका क्या प्रभाव होगा ? ये तो आने वाला समय ही बताऐगा। लेकिन इस हालात से मार्कण्डेय काटजू जैसे लोग जरूर खुश हुए होगें। कुछ दिनों पहले इन्होनें कहा था कि प्रेस की आजादी को कुचल देना चाहिए  हालाकि इस बात के लिए बाद मे इन्होनें माफी भी मांग ली थी।लेकिन क्या इनकी ऐसी मंशा नही समझी जाए अगर ऐसी मंशा नही थी तो कहा क्यूं था?
हरिहरन की गायी एक गजल याद आ रही है  जब कभी बोलना वक्त पर बोलना मुददतो सोचना मुखतसर बोलना  सही भी है क्योंकि एक बार निकले हुए शब्द वापस नही आते।
खैर मुददे पर वापस लौटते है। क्या हिन्दी पत्रकारिता आर्थिक राजनैतिक और सामाजिक समस्याओं के समाधान के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा पा रही है?
मीडिया की जिम्मेदारी समाज के प्रति है। जब तक उसकी समाज मे साख बरकार है उसके चौथे खम्भे का स्वरूप बना रहेगा। लेकिन लगातार विघटन कारी ताकतें मीडिया की साख को कमजोर करने के प्रयास मे लगी हुयी है। पिछले दिनों दो संपादक क्या गिरफ्तार हुए लगा पूरा का पूरा संपादक कुनबा ही दोषी हो गया। फिर भी पत्रकारिता आज भी राजनीति जैसे पेशे से साफ है। क्योंकि पत्रकारिता आज भी जन से जुडी है। आज तो नयी पत्रकारिता का दौर है,हर आदमी पत्रकार है। नयी मीडिया सभी के लिए है। मै फेसबुक आरकुट आदि की बात कर रहा हूं। कहां तक कमजोर करने की कोशिश करियेगा साहब?
लेकिन फिर ये साल भी गुजरते गुजरते हिन्दी पत्रकारिता पर कुछ दाग तो लगा ही गया।
पुण्य प्रसून जैसे मीडिया कर्मी जिनकों जाने कितने सफल मीडिया कर्मी अपना हीरों मानते थे। बाजार ने उनकी भी साख सैलरी के बदले खरीद लिया। ऐसा क्यूं हुआ ?
माखन लाल चतुर्वेदी ने कहा था  पत्र हमारा शस्त्र है शत्रु हमारा शस्त्र ही तोड डाले ऐसा अवसर मत आने दो। फिर भी यह सत्य है कि सत्य को प्रकाशित ना करें तो सत्य से विचलित होगें। तुम्हारा ये खेल मंहगा भी पड जाए तो मुझे पश्चाताप नही होगा
                                                         अब अगर माखन लाल चतुर्वेदी के शब्दों पर गौर करें और वर्तमान का विश्लेषण र्इमानदारी से करे तो आज तो मीडिया का सबसे बडा शत्रु तो मीडिया संस्थानों का मालिक है। और ये मीडिया संस्थान या तो नेताओं के है या फिर किसी पूंजी पति के फिर पत्रकारिता को दोषी क्यों बनाया जाता है? क्यों किसी पेड न्यूज के सामने आने पर पहले उस संस्थान के मालिक को नही पकडा जाता। क्यूं किसी को अपने साख पर दाग लगाने को मजबूर होना पडता है?यही नही आज समाज मे पत्रकारों पर हमले भी ज्यादा हो रहे है। क्यों पत्रकारों को सुरक्षा नही मिल पा रही है? तमाम प्रश्नों के बीच सबसे बडा प्रश्न पत्रकारिता की साख का है।खबरों की सत्यता व निश्छलता का है।
वर्तमान मे पत्रकारिता को ऐसे पत्रकारों से सीख लेनी चाहिए। और पत्रकारिता समाजिक सरोंकारों से जुडी हुयी होनी चाहिए। पत्रकारों को स्वार्थो मे पड कर अपने वास्तविक उददेश्यों को नही भूलना चाहिए और जो सही मायने मे सामाजिक उददेश्यों व हितों से जुडी हो ऐसी पत्रकारिता को पत्रकारिता से माना जा सकता है।


Saturday, November 24, 2012

फेसबुक पर कमेंट करना कोई गुनाह नहीं


अभिव्यक्ति की आजादी सभी को है। फेसबुक पर कमेंट करना कोर्इ गुनाह नहीं है। मुम्बर्इ पालघर में दो लडकियों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की कीमत चुकानी पडी। महज फेसबुक पर कमेंट करना भारी पडा।

आजादी के बाद संविधान का निर्माण हुआ। जिससे देश के राजनैतिक, एंव सामाजिक परिदृश्य में परिवर्तन आया। समाचार पत्रों के उददेश्य में भी परिवर्तन आया, अब समाचार पत्र व न्यूज चैनल खबरों के साथ मनोरंजन सामग्री भी प्रकाशित करने लगे संविधान में मिली अभिव्यकित की स्वतंत्रता का पत्र मनमाने ढंग से इस्तेमाल करने लगे हैं। ऐसे न्यूज चैनलों व समाचारपत्रों के खिलाफ कोर्इ आवाज उठती नही सुनार्इ देती है।

लेकिन फेसबुक पर कमेंट की वजह से किसी को पुलिस पकडे तो सोचना पडेगा, क्या देश मे अभिव्यकित की स्वतंत्रता है?अगर फेसबुक समाज का मीडिया है तो पुलिसिया कारवार्इ की इसी मीडिया पर खूब आलोचना हुयी है।

आज भारत को स्वतंत्र हुए 63 साल हो गये है। इतने सालों मे समाचार पत्र इतने आधुनिक हो गए है। कि वो मसालेदार खबरों को बेचते है। एक तरफा खबरों को बेचते है । पेड न्यूज के मकडजाल मे उलझे मीडिया समूहो को कोर्इ कानून नही रोकता लेकिन सामाजिक स्वतंत्रता को बाधित करने के षडयन्त्र रोज ही रचे जाते है। सोशल मीडिया की ताकत को जानती है,सरकारें। यही कारण है कि राजनेताओं के अंडबड बयान सोशल मीडिया पर आते ही रहते है। क्या सोशल मीडिया पर लिखना मना है। महज ये लिखने पर कि बाल ठाकरे जैसे लोग रोज पैदा होते है और रोज मरते हैं पुलिस छात्राओं को गिरफ्तार कर लेती है। तो इसे वाक व अभिव्यकित की स्वतंत्रता मे बाधा ना माना जाए। और ये क्यों ना माना जाऐ कि ऐसे कार्य सत्ताधारियों के इशारे व दबाव मे पुलिस करती है?

गणेश शंकर विधार्थी ने भाषा की स्वतंत्रता को इस प्रकार व्यक्त किया था - मुझे देश की आजादी और भाषा की आजादी में से किसी एक को चुनना पड़े तो नि:संकोच भाषा की आजादी चुनूंगा। क्योंकि देश की आजादी के बाद भी भाषा की गुलामी रह सकती है। लेकिन भाषा आजाद हुर्इ तो देश गुलाम नहीं रह सकता। तो गणेश शंकर विधार्थी के इस कथन को माने तो हम आज भी गुलाम है। क्यों कि अगर वाक व अभिव्यकित के वजह से किसी को पूरे देश के सामने शर्मिदा होना पडे। पुलिसिया जांच का शिकार होना पडें,तो ये शर्म का विषय है।

मुम्बर्इ जैसे दिन रात जागने वाले शहर के बंद पर सवाल उठाने पर तो मुम्बर्इ पुलिस बडी मुस्तैद निकली। और इन लडकियों के चाचा के क्लीनिक मे घुस कर तोड फोड करने वालों को सोशल मीडिया पर विरोध के बाद गिरफ्तार किया। आखिर ऐसा क्यों किया ? क्या कोर्इ राजनीतिक दबाब था ? तमाम सवाल साफ है,और मुम्बर्इ पुलिस को जबाब देना पडेगा। कि भारत के आम जन को वाक व अभिकित की स्वतंत्रता है या नही ? और अगर है तो इस घटना की नैतिक जिम्मेदारी कौन ले रहा है ?

मीडिया के हो हल्ला मचाने के बाद , फेस बुक पर थू थू होने के बाद पुलिस ने इस घटना पर जांच बैठा दी है। माना लड़कियां मुम्बर्इ जैसे शहर की रहने वाली है। लेकिन अपमान व पुलिसिया फटकार कोर्इ भूले नही भूल पाता है। फिर ऐसे मे उन लडकियों को गिरफ्तार करने का आदेश देने वाले अधिकारी व पुलिस वालों की बर्खास्तगी क्यों नही? डरी सहमी शहीन ने अपना फेसबुक एकांउट बंद कर दिया। और उसकी सहेली ने कहा कि वो अब कभी कमेंट नही करेगी। क्या अपनी बात को कहने की आजादी नहीं है क्या ?

ये तो पक्का है कि हमारे देश की पुलिस नेताओं के इशारों पर नाचती है। अगर ऐसा नहीं है तो बाल ठाकरे के खिलाफ तो लाखों ने लिखा है, लेकिन लिखने के मामले मे हमला मुसलमान पर ही क्यों ?

हिन्दी के जाने माने कवि नागार्जुन ने भी तो बहुत पहले 7 जून 1970 को ही ठाकरे के बारे मे एक पूरी कविता लिख दी थी '' बर्बरता की ढाल ठाकरे '' किसी प्रशासन ने उन्हे गिरफ्तार नही किया था।ठाकरे के मरने पर और इस कविता को बहुत सारे लोगो ने अपने फेसबुक पर शेयर भी किया। उन पर कार्रवाई क्यों नहीं केवल दो मुस्लिम लड़कियों पर ही कार्रवाई क्यों ? आखिर किसी की कोर्इ व्यक्तिगत वजह तो नही?

बाल ठाकरे के बारे मे हिन्दी के जाने माने नाम राजेन्द्र यादव ने भी अपने वाल पर खूब लिखा है और नागार्जुन की कविता भी शेयर की है। तो राजेन्द्र की गिरफ्तारी क्यूं नही ?

वास्तव मे अगर फेसबुक स्टेटस के वजह से शाहीन को गिरफ्तार किया गया है । तो सामना व दोपहर का सामना के संपादको को पिछले कर्इ सालों मे सैकडों बार गिरफ्तार किया जाना चाहिऐ। सामना के संपादकीय ऐसे भडकाउ बयानों को सर्मर्थित करते रहे है ,जो उन्ही धाराओं के अनुसार संगीन अपराध है जो शाहीन पर लगाऐ गये । संपादकीय लिखने वाले ठाकरे और उनके संपादक संजय निरुपम से लेकर प्रेम शुक्ला और संजय राऊत तक की पूरी जिंदगी जेल जाते . जाते और बेल लेते . लेते बीत जाती । इनके खिलाफ कभी पुलिस की चूं भी हमने नहीं सुनी। ठाकरेशाही के सामने पुलिस की क्या हैसियत और पुलिस के सामने शाहीन जैसी लड़कियों की क्या हैसियत । ये देश के लिए और ख़ासतौर से महाराष्ट्र के लिए शर्मनाक है। निर्बल मजदूर ,रिक्सा चालकों उत्तर भारतीयों को मारा पीटा । जिसने हमेशा राष्ट्रविरोधी बयान दिया। उसे तिरंगे में लपेटकर प्रदेश सरकार ने अपनी चाटुकारिता का परिचय दिया है। और मुम्बर्इ पुलिस ने शहीन को गिरफ्तार कर राजनैतिक चाटुकारिता का परिचय दिया है।शर्म है ऐसी पुलिस पर। 

Friday, November 16, 2012

अपनी संभावनाऐं जानता है मीडिया


आज की राजनीति उस गंदे नाले की तरह है जिसकी सफार्इ नही होती और पत्रकारिता उस नाले मे घूमने वाले सूअर की तरह है। तो आप बखूबी अंदाजा लगा सकते है कि अकेले पत्रकारिता कितनी सफार्इ कर सकती है वास्तव मे,आजादी से पहले और बाद दोनो ही समय मे इस हथियार का बडा कायदे से लोगो ने इस्तेमाल किया ।
आज कोर्इ भी आमोंखास सभी पत्रकारिता के बारे मे कुछ भी राय रखने लगे है।एक तरह से पत्रकारिता के लिए यह अच्छा है, लेकिन क्या ? उनके द्वारा दी गयी पत्रकारिता की परिभाषा पूरी तरह सही है।या नीम हकीम खतरे जान ,अधूरी जानकारी मे वो अपना ज्ञान बघार रहे है। खास कर नेताओं को मीडिया से बडी नाराजगी है। लेकिन फिर क्यों मीडिया के कामकाज मे बहुत दखलन दाजी रखते है । और इन गधों की सारी परिभाषा पत्रकारों के इर्द गिर्द शुरू होती है। संस्थान के ओनर के विषय मे इनकी परिभाषा कोर्इ बात नही करती क्यों ? क्योंकि आज तमाम चैनल , न्यूज पेपर मे इनका पैसा लगा है । मीडिया एक लाभ और फेम का धंधा है।और चुनाव के समय ये मीडियम इन नेताओं का ऐजेंडा सेट करने के काम आते है। इसलिए समाज मे पत्रकारों व पत्रकारिता को बदनाम करके आज पत्रकारिता को इन्टरटेंमेंट का साधन बना डाला है। तमाशें मे तब्दील हो गयी है आज की पत्रकारिता । क्यों पेड न्यूज का सारा ठीकरा पत्रकारों पर फोडा जाता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी शुक्रवार को कहा,गैर जिम्मेदार पत्रकारिता का जबाब सेंसरशिप नही है और मीडिया के आत्म नियमन की वकालत की । लेकिन यह नही सोचा कि नियमन की जरूरत है वास्तव मे , नेताओं के द्वारा मीडिया मे पैसे लगाने के नियमन की और मीडिया के द्वारा अपना ऐजेंडा सेट करने के नियमन की जरूरत है । प्रेस दिवस पर प्रधान मंत्री ने पत्रकारिता के हित की खूब बाते की , उन्होने कहा कि पत्रकारिता को बाह्य नियन्त्रण से मुक्त होना चाहिए। जी हां होना चाहिए लेकिन क्या पत्रकारिता बाह्य नियन्त्रण से मुक्त है? नही ना तो फिर किसका नियन्त्रण है ,आज की पत्रकारिता पर सोचिए जरा । मीडिया हाउसों के मालिकों का या फिर जिनके पास इन बडी बडी मीडिया कंपनियो के शेयर है। कौन है ये ?मीडिया हाउसों के ओनर  नेता जन या फिर  कारपोरेट का कोर्इ धन पशु । आज कारपोरेट मे आती है पत्रकारिता प्रधानमंत्री जी,और आज के समय मे पत्रकारिता के सरोकारों की बात भी करना बेर्इमानी है। मीडिया अपना काम कर रहा है। तमाम आर टी आर्इ ऐकिटवसट मार दिए गये तमाम अच्छे पत्रकारों को पुलिसिया डंडे खाने पडते है। ये ओनर तो उन्ही के मेहनत की मलार्इ खाते है। डंडा खाऐ पत्रकार मलार्इ खाऐ ये। और अन्त मे एक आध चोरों के कारण पूरी पत्रकारिता बदनाम। कौन है ये पत्रकारिता को चरित्र प्रमाण पत्र देने वाला पाक चरित्र आदमी जरा बताऐ तो नाम । कैसा है उसका चरित्र ? उत्तर नही मिलेगा , मै जानता हूं पत्रकारिता आज भी जनसरोकारों के साथ है । बस ये बनिये व नेता अपनी हद मे रहे पत्रकारों को ज्यादा सिखाने की जरूरत नही है। पत्रकारअपना काम पूरे सरोकारों के साथ कर रहे है।