Monday, December 19, 2011

अदम गोडंवी को समर्पित कविताए

अदम गोंडवी खामोश क्यूं है


दर्द को जुबां दे पाता तो बता देता
आज वो खामोश क्यूं है
मोतियां आखों की बिखरनें से
रोक पाता तो बता देता
आज वो खामोश क्यूं है

महलों में नही दिलो में रहता था
दिलों के जख्म दिखा पाता तो बता देता
आज वो खामोश क्यूं है

लोगो की जुबां पर चढ गयी है बातें उसकी
शब्दों में अब भी जुबां है उसकी
उसकी जुबां में कह पाता तो बता देता
कि वो खामोश क्यूं है

राख बन कर मिल गया
धरती आकाश जल हवा अगिन में
हिन्दी जमीं इस खाली जमीं को
भर पाता तो बता देता
अदम गोंडवी खामोश क्यूं है

एक सूरज था जो आखिर ढल गया

फिर अन्धेरों को सौप कर ये देश
एक सूरज था जो आखिर ढल गया
अंत तक कहता रहा
ना लेना एहसान किसी का
वो अदम था,आखिर चला गया

जो जाते जाते भी कुछ कह गया
बगावत की जमीं पर काव्य को खडा कर
आदमी के हकों की बात ऐसी कह गया
भूल ना सकेगीं हिन्दी की सरजमीं जिसे
वह अदम था,आखिर चला गया

गूंजते है अब भी उसके शब्द
हिन्दी भाषियों के जुबानों पर
एहसासों के हर किवाड पर
खालीपन कितना ज्यादा भर
एक सूरज था जो आखिर ढल गया
वह अदम था,आखिर चला गया

अब बची है
सिर्फ उसके काव्य की रोशनी
फिर अन्धेरों को सौप कर ये देश
एक सूरज था जो आखिर ढल गया

Friday, October 28, 2011

मीडिया के नियन्त्रण पर किसका हित



पिछले कुछ आंदोलनों को देखकर सरकार की मंशा व नजरिया साफ तौर पर मीडिया को नियन्त्रित करने की है,ताकि वो खबरें समाज तक ना पहुचें जो सरकार की कार्यगजारी को उजागर करती हो।आइये उन प्रश्नो के उत्तर तलासते है जो इस सरकारी मंशा से खडे होते है?और प्रेस कानून में किन बदलाव की जरूरत है?और किन बदलाव की ओर सरकार की मंशा है?
पहले तो क्या प्रेस कानूनों मे बदलाव की जरूरत है? तो जी हां आज के परिवेश को देखते हुए ,पत्रकारों की दशा और स्थित को देखते हुए।प्रेस कानूनों में बदलाव की जरूरत है।क्यों कि आज प्रेस कानूनों को प्रेस के सबसे छोटी ईकाई जिला संवाददाता के भी हित में होना जरूरी है।
अभी क्या हो गया कि भारतीय पत्रकारिता की गति अवरूद्घ करने का सियासी माहौल तैयार होने लगा है।तो आज के सियासत कारों को ये लगने लगा है कि उनकी कार्यगजारी को अगर जनता तक पहुचाने वाले तंत्र को ही कुछ अवरूद्व कर दें तो उनके कार्यकलापों को जनता तक पहुचाने वाली पत्रकारिता कमजोर हो जाएगी।और ये घोटालेबाज नेता आराम से इस देश का पैसा अनाप सनाप अपनी निजी मंशा से खर्च सकेगें या भ्रष्टाचार कर सकेगें।इनको अपने देश की आजादी का इतिहास शायद नही पता तभी तो कछ भी बोलते है,कछ भी करते है।पिछले कछ उदाहरण दूं तो मनीष तिवारी सरीखे नेता को मर्यादा हीन होकर बोलते हुए देखकर इन नेताओं को नही लगा कि नेताओं के अधिकार भी एक आम आदमी के अधिकार से ज्यादा नही है।लेकिन फिर ये क्यूं अपने पद के रसूख में अपनी मर्यादा भूल जाते है।आजादी के समय भी तमाम अधिनियम बना भारतीए पत्रकारिता को कमजोर करने के कार्य हुए थें।लेकिन पत्रकारिता तब भी नही डिगी थी अपने राह से ।आज भी पत्रकारिता अपने राह पर ही है।और कोई भी सेंसर पत्रकारिता को अवरूद्व ना कर सकेगी।
आज उन नामो पर जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आदोंलन से जडे थे,उन पर लगाम लगाने की कोशिशे रंग लाती नजर आ रही है।हो सकता है,ये मुहीम यही दम तोड दे लेकिन जंतर मंतर व राम लीला मैदान की भीड रूपये से खरीदी भीड नही थी।और इस देश की सियासत के निरालें रंग है,अभी कछ ही रंग दिखे है।गंगा जमनी तहजीब के रंग तो अभी चनाव में ही दिखेगें।
मीडिया के नियन्त्रण पर समाज या सरकार किसका हित है?अगर इस प्रश्न का उत्तर तलासेगें तो उत्तर यही मिलेगा कि जनता के हित में कोई फैसला सरकार को लेना हो या यूं कह दें आज के नेताओं को लेना हो, तो वो अपनी राजनैतिक लाभ यानि वोटो का गणित जरूर बैठाएंगे कुंल मिला कर मीडिया को नियन्त्रित करने की मंशा जन हित मे नही है। मीडिया के नियन्त्रण पर किसका हित है?पेड न्यूज में किसका हित है?और मीडिया का सहारे का सबसे ज्यादा फायदा कौन उठाता है?ये बताने कि जरूरत ही नही है।
पत्रकार के लिए भी नियम कायदे कानून उतने ही है जितने की आम आदमी के,पत्रकारों के लिए भी आचार संहिता है,और प्रेस आयोग भी।वे वैसे ही कार्य कर रहे है जैसे कि देश में अन्य कानून कार्य करते है। तो पहले देश के आम आदमी को न्याय मिलने लायक कानून मजबूत करें।पत्रकार भी अपने आप उन्ही कानूनों के अन्दर आ जाएगा क्योंकि पत्रकारों को उतनी ही स्वतंत्रता है जितनी कि आम आदमी को।
सूचना क्रान्ति ने ना सिर्फ खबरों के माध्यम बदले बल्कि खबरों के तरीके और तेवर भी बदल दिए।जाहिर सी बात है आज सूचना संप्रेषण का इतना महत्व है व संप्रेषण के इतने साधन है कितनों पर और कैसे नियन्त्रण लगेगें।जाहिर सी बात है,भारत के राजनेताओं को विकास की राजनीति के नाम पर वोट मांगने की जरूरत है।

Tuesday, October 18, 2011

भष्टाचार,फिजूलखर्ची या कि विकास


ये कैसा विकास
विकास की किस परिभाषा में करोडों का पार्क,स्मारक बनवाना विकास कहलाता है।दलित कल भी पिछडा था,आज भी पिछडा है,और जो कुछ कर रहा है अपनी मेहनत से ही कर रहा है।आधुनिकता की अंधी दौड में बहते ये नेता जन शब्द का अर्थ ही भूल गए है।तो फिर जन सेवा का क्या मतलब होता है,ये कैसे समझ सकते है। कोई भी नेता हो,किसी पार्टी का हो,आज किसी भी नेता के अधिकार क्षेत्र के किए गए कार्यो की समीक्षा की जाए तो भ्रष्टाचार और फिजूलखर्ची ही क्यों उजागर होते है?
इस साल जब देश ने भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में युवाओं का सर्मथन देखा,तो नेताओं को भी समझना चाहिए कि जिस तरह के हालात में देश के भीतर आम आदमी रह रहा है,और बढती मंहगाई उसके लिए रोजमर्रा की परेशानी का कारण बन रही है।वह एक बडा सवाल खडा करती है। आखिर क्यों देश की ये दशा होती जा रही है?कि आम जन को हर तरफ दिक्कतें ही नजर आती है?मंहगाई और भ्रष्ट तंत्र ने आम जन का जीना दूभर कर दिया है।
जन सेवा के नाम पर चुने नेताओं को ये छूट कहां कि जनता के पैसे को जैसे चाहे वैसे खर्च करे।अपनी मूर्तियां लगवा कर अपनी जीवन गाथा पत्थरों पर उकेर कर जनता के पैसे की बरबादी क्यों?दलित नेताओ महापुरूषों के नाम पर ये दिखावा क्या शोभा पाता है?

एक तरफ भारत का किसान,शिक्षक,छात्र,आम आदमी जिंदगी से परेशान हो कर आत्महत्या कर रहा है।देश भष्टाचार की आंधी में जल रहा हो।ऐसे में दलित महापुरूषों के नाम पर अपनी मुर्तियां लगवाना कहां तक उचित है?
एक तरफ देश का किसान कर्ज में डूबा है,दूसरी तरफ उसके मेहनत से पैदा अनाज को गोदामों मे किसान से औने पौने दाम में खरीद कर सडाया जा रहा है।बरसात मे उसके बदइंतजामी की खबरें पढने को मिलती है।
उच्च शिक्षा बदहाल है तो प्राइमरी शिक्षा का इस देश में कोई भविष्य नही।सरकारी विभागों में भष्टाचार रूपी दीमक लगा है।इस देश मे आज भी लोग भूखे सोते है,या एक टाइम ही खाना खाते है,और फिर भी सरकार के हुक्मरान गरीबी की औनी पौनी परिभाषा देने में नही चूकते।
आजादी के ६० वर्ष बाद भी देश के तमाम इलाकों में सडके नही पहुची,लाइट व अन्य साधनों की बात तो छोड ही दे।जहां सुविधाऐं पहुची भी है वो बदहाल है।देश के मुख्य मार्ग गडडों से भरे है।
क्या केन्द्र की सरकार क्या राज्यों की सरकारें सभी जनता के लिए उनके सुविधा के लिए नही सोचती।वो केवल वोट की राजनीति करते है।और हराने पर क्यूं हारे इसकी समीक्षा करना जानते है।लोक तंत्र में जनता मालिक होती है।और जनता के सुविधा के लिए कानून बनाये गये है।
किन्तु नेता ये समझते है कि वो चुन कर गए है तो कुछ भी कर सकते है कोई भी निर्माण करा सकते है।कोई भी योजना लागू कर सकते है।तो ऐसा नही है आज बढते संचार के साधनों ने ही आम जन को इतना जागरूक किया है। कि अब किसी भी नेता को अगर वो जन विरोधी कार्य करता है।तो उसके पूरे कार्यो को समझते है, अब ये उस जन की जिम्मेदारी होती है की वो ऐसे लोगो को सबक सिखा दे।और आने वाले समय मे नेता वोट के लिए नही विकास के लिए राजनीति करें।तो शायद आने वाले कुछ वर्षो के बाद भारत का सच मे विकास दिखें किसान और गरीब के साथ शहरों में रहने वाला आम आदमी भी सुख से रह सके।
http://www.mediamanch.com/Mediamanch/Site/HCatevar.php?Nid=2401
media manch 19-10-2011

Monday, May 9, 2011

सत्याग्रह को अपमानित करता प्रशासन




कुछ सामान्य हकों के लिए अनसन पर बैठे छात्रों के साथ अक्सर सुननें मे आता है,कि उनपर पुलिस ने लाठियां भांजी गयी।अभी जामिया मीलिया में भी ये वाकया दोहराया गया।कुठिंत कुलपति के इशारे पर जामिया नगर पुलिस ने निर्दोष छात्रों को पीटा।छात्राओं के साथ भी बत्तमीजी की गयी।कुछ दिनों पूर्व इन्ही के इशारे पत्रकारिता के छात्रा का सामान उसके हास्टल से बाहर फेक दिया गया था। इस लाठीचार्ज में छात्र छात्राओं पर ना सिर्फ पुलिस बल्कि जामिया प्रसाशन ने भी हाथ साफ किया। कितने दुख की बात है कि आज के इस समय में दिल्ली भष्ट्राचार के खिलाफ शुरू हो चुकी जंग की साक्षी बन रही है। वही देश के एक ऐसे नामी संस्थान में सत्याग्रह कर रहें छात्रों पर ऐसी कुंठा से भरा वाकया जानबूझ कर सोची समझी मांसिकता के साथ अंजाम दिया जाता है। इन्हे सत्याग्रह का अर्थ नही पता,अगर स्वंत्रत देश में सत्य के लिए आग्रह कर रहे अहिंसात्मक आंदोलन कर रहे निर्दोष छात्रों पर एक विश्वविद्यालय की कुंठा इस रूप में परिणित होती है,तो अगर आज महात्मा गांधी आज जिन्दा होते तो निश्चय ही वो निशस्त्र प्रतिकार की शिक्षा ना देते।ऐसे शिक्षको को पढानें का क्या हक है,जो पुलिस के साथ मिल कर अपने छात्रों के साथ मार पीट करतें है।ऐसे कुलपति को अपने पद पर बना रहनें का क्या हक है?देश को आजादी दिलाने वाले महात्मा गांधी के द्वारा देश को सत्याग्रह की शिक्षा मिली है।उसका प्रयोग कर रहें छात्रों पर लाठियां भांजना क्या गांधी व सत्याग्रह का अपमान नही? आजादी का अपमान नही?जाहिर सी बात है,अपमान है।सत्याग्रह के लिए महात्मागांधी ने लिखा है,कि सत्य के लिए प्रेमपूर्वक आग्रह।अब अगर इस प्रेम पूर्वक आग्रह का ये अंजाम है,तो ऐसे सत्याग्रह का क्या मतलब?किसी को कुछ अडंगा लगा कर परीक्षा में बैठने से रोक देने से परीक्षा की गरिमा,निष्पक्षता व मानक नही बढ जाते।बल्कि नकल विहीन,पक्षपात से दूर,व शिक्षको द्वारा सही मूल्यांकन किऐ जाने से कोई परीक्षा आदर्श होती है।
इसके अतिरिक्त गंगा को लेकर नैनीताल उच्च न्ययालय के भष्ट्राचार के खिलाफ 68 दिन से अनशन पर बैठे संत निगमानंद को पुलिस द्वारा उठवा लिया जाता है।और अस्पताल में जबरियां भर्ती करवा दिया जाता है। और अब वे कोमा में चले गऐ है।19 फरवरी को उनका अनशन शुरू हुआ,और 27 अप्रैल को पुलिस गिरफ्तारी।पुलिस ने जब उन्हे अस्पताल में भर्ती किया तो वो स्वस्थ थे।अब ऐसी कौन सी दवाईयां उनकों दी गयी जिससे कि वे कोमा में चले गए।सरकार व प्रशासन द्वारा इस प्रकार सत्याग्रह के खिलाफ जो साजिशे है वो सत्याग्रह को बेमानी सिद्व करती है।और आने वाले समय में जन सामान्य को ससस्त्र प्रतिकार पर सोचने पर मजबूर कर रही है।
उधर गत 3 मई को मजदूरों पर हुयी फायरिंग के विरोध मे 9 मई को हुए मजदूर सत्याग्रह को जिस तरह से पुलिस ने लाठीचार्ज कर कुचलने का प्रयास किया।वो किसी तानाशाही से कम नही प्रतीत होता।जब जनता से उसके प्रतिरोध का शांतिपूर्ण किया जाने वाला अधिकार छीन लिया जाता है।तो जनता के पास एक ही चारा रह जाता है,ससस्त्र प्रतिकार।पहले से घोषित सत्याग्रह को कुचलने का ये शर्मनाक वाकया वास्तव में नेताओं व प्रशासन के दोगलेपन को बयां कर रहा है।एक तरफ तो इन नेताओं ने देश को आजादी के बाद से ही लूट लूट कर विदेशो में देश की पूंजी को सडा रहें है।उसको वापस लाने की पहल कवायद एक भी नेता व्यापारी करता नजर नही आ रहा।दूसरी तरफ अपने छोटी छोटी मांगों के बदले जनता को ये सिला मिल रहा है।जाहिर सी बात है,लगता है भारतीए संस्कृति,सभ्यता,मानवता सभी मूल्य नेताओं द्वारा व प्रशासन द्वारा नेताओं की चाटुकारिता के कारण बेमाने हो गए है।इतना बदनाम किया इन लोगो ने गाँधी को और उनके सत्याग्रह को कि शर्म आती है अब तो महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता कहते भी, आज का समय भी किसी गुलामी से कम नहीं..अदम गोण्डवी साहब की एक कविता ध्यान आ रही है इन नेताओं पर..............

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे

ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे







Wednesday, April 27, 2011

इस हवा में फैली है बदलाव की बयार




किसी आंदोलन की शुरूवात यूं ही नही होती।किसी आंदोलन को होने के लिए समय व परिस्थियां होती है।कोई आदोंलन समय व परिस्थितयों के अनुरूप ही इतिहास बनता है।और इसी के साथ किसी आदोंलनों में शामिल भीड का अंदाजा केवल आंदोलनकारियों के साथ खडे लोगो को देखकर नही लगाया जा सकता।क्योंकि समय व परिस्थितयों के अनुरूप सिस्टम से लडाई के हथियार बदल जाते है।अगर इस माह के शुरूवात से अब तक के सभी घटनाक्रम पर नजर डाले तो स्थित बदलाव के बयार की हवा की सुगन्ध देती दिखाई देगी।मै केवल भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की बात करू तो ये आंदोलन तो अभी पढें लिखें लोगो तक है।षहरों तक है,लेकिन इस आग की लपटे जब गांवों तक पहुचेंगी तब?क्या गांवों के लोगो में कम रोष है सिस्टम को लेकर? नही साहब,अभी ये आदोंलन अभी नया रंग लेगा। जब इसमें गावों का भी जन शामिल होगा। इस आंदोलन का दूसरा चरण तो शुरू हो चुका है। जब अभी से नेताओं की बौखलाहट दिखाई देने लगी है।तब क्या होगा जब इस आंदोलन में गांव के ग्रामीण उतरगें?सच्चाई यही है कि भारत की जनता अब और भ्रष्टाचार सहने को तैयार नही है।क्योंकि इससे सबसे ज्यादा प्रभावित आम आदमी ही होता है।गांधीवादी विचारक समाजसेवी अन्ना जी की आंखो से भारतीए पढें लिखे समाज ने जो सपना देखा उसे पूरा करने के लिए उस सपने को भारत के हर गांव व हर शहर तक पहुचानें के लिए अन्ना ने अपने आंदोलन के दूसरें चरण की शुरूवात कर दी है। बाबा रामदेव ने भ्रस्टाचार मिटाने के लिए अलग तैयारी कर रखी है।
कुल मिलाकर लडाई की शुरूवाती स्थिति ने ही इस बात का फैसला कर दिया था कि लोग इस अभियान के साथ है,और ये अभियान अभी थमा नही है।अन्ना के अनसन तोडते ही तमाम लोगों ने अनशन पर जो अंटशंट शुरू किया।उसने भ्रष्टाचार के खिलाफ की हवा को और तेज किया। कल्माडी को पड रहें जूतों से भ्रष्ट नेताओं और भष्ट नौकरशाहों को सोचना चाहिए,कि उनका नंबर भी आएगा।बात अब जनता की अदालत में है।और आज के समय में जब किसी इतने बडे अहिंसात्मक आंदोलन की कल्पना नही कि जा सकती,अन्नाहजारें ने ना सिर्फ आंदोंलन को सफल बनाया बल्कि जनलोक पाल बिल को कानून बनानें के लिए अब भी अपने आंदोलन पर कायम है।और अब तो उनके साथ युवावर्ग पूरी तरह से उतर आया है।और देश के सभी विश्वविद्यालयों में अन्ना जी की आंदोलन की हवा बह रही है।और इस दौडती भागते समय में जो जिस माध्यम से फोन,इन्टरनेट,टीवी शुभकामनाओं, आदि जैसे भी उसको लग रहा है,वो अन्ना जी के इस मुहिम से जुड रहा है।चंद स्वार्थी लोगो के विरोध भी नजर आ रहें है।लेकिन उनकी आवाज कही नही सुनाई दे रही क्योंकि समय अन्ना के पक्ष में है।कुछ लोग इस मुहिम के विरोधी इसलिए है,क्योंकि नेताओं से ज्यादा भ्रष्ट तो हमारे नौकरशाह और मीडिया है।और उनका डर विरोध के रूप में प्रकट हो रहा है।लेकिन अब आम आदमी जनसरोकारों की बात कर रहा है।अपने अधिकार की बात कर रहा है,तो आप अंदाजा लगा ले आंदोलन कितना कुछ सफल है।

Tuesday, April 19, 2011

बाजार के हाथों बिक गयी मीडिया







पूरी दुनिया के समाचार चैनलों व समाचार पत्रों के लिए पिछले दो दशक सबसे ज्यादा चुनौती पूर्ण रहें है।खास कर भारतीय मीडिया ने इन दो दशकों में खासे उतार चढाव देखें है।सूचना प्रौद्योगिकी में हो रहें बदलाव भारतीय मीडिया को चुनौतियां देते चले आ रहें है।बदलाव कि इस बयार में कई छोटे बडे मीडिया नजर आऐ और कई ने अपनी दुकानें समेटी या फिर अपनी दुकानों से बेच रहें सामान कहने का मतलब है,प्रसारित कर रहें कार्यक्रम या छप रही विषयवस्तु,लेआउट आदि में अमूलचूक परिवर्तन किए।मै किसी खास मीडिया संस्थान का नाम नही लेना चाहता लेकिन बह रही परिवर्तन की बयार में सभी मीडिया संस्थानों ने वो सब कुछ किया,जो उन्हे मुनाफा कमवा सकता था।लेकिन इन सब बातों में कही ना कही सभी ने अपने दर्शकों या पाठकों के साथ धोखा किया।खबरों के साथ ईमानदारी नही बरती,तरह तरह के भ्रामक व घटिया प्रयोग खबरों को लेकर किया।तरह तरह के नए और घटिया प्रोगामों का ईजाद सिर्फ सिर्फ टी आर पी के मकसद से किया गया। अब इस मकसद को पूरा करने के लिए समाचार चैनलों ने अपने नैतिकता से समझौता कर लिया।और अब टी बी यानि बुदधू बक्सा भी नए कलेवरों में रंग गया।बेवकूफ बने आम आदमी का काम रिर्मोट पर केवल हाथ चलाना रह गया।इन लोगो ने ना सिर्फ अपने पाठक,दर्शकों को ही धोखा दिया,बल्कि इन संस्थानों ने अपने परिवार या यू कह ले,अपने कर्मचारियों के साथ भी विश्वासघात किया।धोखा देने के क्रम में कुछ नामी गिरामी मीडिया घरानें भी कम ना निकले उन्होनें पत्रकारिता को बेचने के लिए शिक्षण संस्थान खोल लिया।चमक दमक को दिखा पत्रकारिता की मंहगी गुणवत्ता विहीन शिक्षा को बढावा दिया।बल्कि युवाओं को प्लेसमेंट के नाम पर खासी रकम फीस के रूप में वसूल कर उन्हें चंद रूपए की नौकरी के आगे बेच डाला।और इसके साथ साथ समाज को भी धोखा दिया।उसी का नतीजा निकल कर सामने आया,आज चाहे वो प्रिंट मीडिया हों या फिर इलेक्ट्रानिक मीडिया। सभी ने अपनी विश्वसनीयता को खो दिया है।और बुद्विजीवी वर्ग ये सब देख कर खासा संशय की स्थित में रहा।और कुछ ईमानदार मीडिया बुद्विजीवी जिनसे परिवर्तन की बयार में अपना जमीर ना बेचा गया,उन्होनें अपना धंधा पानी बदल डाला। इन्टनेट और मोबाइल की नयी मशीनी विद्या ने तो भारत की मीडिया की दुनिया ही बदल डाली। कुछ मोबाइल टेपो ने ही बडे बडे दिग्गजों के गर्व को चूर चूर कर दिया।लेकिन काजल की कोठरी में पाक दामन कौन है।जो पकडे गये वो चोर जो बच गए वो दूसरों में कमियां निकालेगें ही।परिवर्तन की बयार ने मीडिया हाउसों को ये तो सिखा ही दिया था कि अगर इस होड में बने रहना है। तो बदल गए पत्रकारिता के बाजार के मुताबिक बिकने वाली खबरें लानी होगी।देर सबेर सभी ने समझा और बदल गए पत्रकारिता के बाजार में सभी उतर पडे।बिना किसी रोक टोक के गुणवत्ता विहीन कार्यक्रम,हसानें के नाम पर फूहडता,क्राइम के नाम पर अश्लीलता, आदि आदि। और ये सभी कुछ किया गया पैसों के लिए। और जब पैसों के लिए इन अखबारों व चैनलों ने अपनी पहचान बेच डाली, तो इन पर क्या भरोसा किया जा सकता है कि ये समाज को कुछ दे सकते है।और अब भारत में अपने पैरों पर खडी हो रही नव मीडिया से ही कुछ उम्मीद बची है। कि वो कुछ सार्थक करें जो देश को रहने लायक बनाए रखें।मै मीडिया चैनलों या अखबारों के खिलाफ नही हूं,बल्कि कहना ये चाहता हूं।इन्होनें अपने व्यवसायी मंसूबों की पूर्ति के लिए ही अपने आधार खबरों के साथ ही नाइंसाफी की।नव मीडिया अर्थात इन्टरनेट से जुडी मीडिया बेब आज ज्यादा लोकप्रिए हो रही है। उसका सीधा कारण है कि सूचनाऐं देने के सबसे तेज माध्यम है।और प्रिंट और इलेक्ट्रानिक माध्यमों की भी निर्भरता प्रत्यक्ष रूप में बेब माध्यमों पर दिखाई पडती है।और इस परिवर्तित समय में जो ही सबसे जल्दी खबरें दे सकेगा। वो ही अपने उज्जवल भविष्य को देखेगा।अभी तो अखबार टीवी व बेव तीनों में सूचनाऐं देने की होड है, कि कही वो सूचनाऐं देने मे पिछड ना जाऐ। इसी कारण कई बार बडी बडी गल्तियां हो रही है। खैर नव मीडिया भी अभी अपने घुटनों पर चल रही है। देखते है मीडिया आने वाले समय में किस करवट बैठेगी।

Sunday, April 17, 2011

आखिर नेता किस बात से बौखला गए? WRITTEN BY रवि शंकर मौर्य

SUNDAY, 17 APRIL 2011 19:13

अन्ना पर राजनेता

ये सारे नेता आखिर किस बात से घबरा गए है,अन्ना हजारे से या अन्ना हजारे को मिले व्यापक जन समर्थन से?

आज के दौर मे जब तकनीकी विकास ने हर चीज को बदल के रख दिया है।हर आमजन आत्म केन्द्रित है।ऐसे में किसी को ये उम्मीद न थी,कि आन्दोंलन अपनी शुरुआत से ही जन समर्थन की ये रफ्तार हासिल करेगा।

सभी पार्टियों का निशाना अब अन्ना हजारे पर है क्यों? सभी पार्टियों को ये आकलन करना चाहिए कि इतना व्यापक जनसमर्थन,युवाओं का जोरदार समर्थन ये एक नई तरह की क्रान्ति की शुरूआत है। ये नेता बनाई गई कमेटी के बारें मे कभी,तो कभी कुछ बातों को लेकर,आंदोलन के लिए पैसा कहां से आया जैसी फिजूल बातों को लेकर नैतिकता और देश भक्ति की बात कर रहें है।अमर सिंह को ये बात खराब लग गयी कि जनता ने चौटाला और उमाभारती को जंतरमंतर से भगा दिया,उनको ये आश्चर्य है कि अन्ना जी ने कैसे सारे नेताओं को भ्रष्ट कह दिया। और वो नैतिकता की दुहाई देते है,मान्यवर आप भूल गए जब संसद में नोटो की गड्डियां उछाली गयी थी,तब आप की नैतिकता कहां चली गयी थी।जब कुछ सांसद पैसा लेकर प्रश्न पूछने के आरोप मे पकडे गए थे,तब आप कहां थे।कोई भी राजनैतिक पार्टी अपने को चाहे जितना दूध का धुला साबित करे लेकिन सच्चाई ये है कि सभी के पास अपने पालतू गुंडे है या कि गुडों की ही पार्टी है।

धनबल भुजबल की बढती हुयी महत्ता ने चुनावों में आग मे घी का काम किया है। जितने भी एंटी काग्रेंस लीडर है वो सब जे पी आंदोंलन की उपज है।सबके सब छात्र राजनीति व संगठित छात्र एकता की ताकत को समझते है।कितने आश्चर्य की बात है,लिंगदोह सिफारिस लगाकर विष्वविद्यालयों और महाविद्यालयों से छात्र राजनीति को एकदम खत्म कर दिया गया।छात्र आन्दोलन की उपज इतने सारे मान्यवर कहां है आप लोग?जिस पेड की डाल पर चढे उसी को काट दिया।अब नही गूंजती छात्र एकता जिन्दाबाद की आवाजें?

पूरे हिन्दी बेल्ट को तकनीकी शिक्षा हब के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।ये इंजीनियरिंग कालेज या तो नेताओं के है,या अपराधियों के या उद्योगपतियों के है। आप लोगो को कत्तई उम्मीद ना थी,जिन युवाओं को हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए तकनीकी मजदूर के रूप में तैयार कर रहें है।वही युवा ऐसे आन्दोलन को धार भी देगा।आप सब घबरा इस बात से गए हैं, कि जिस युवा को इस व्यवस्था ने एकदम किनारे रखा। आज का वही युवा व्यवस्था परिवर्तन की भूमिका तैयार कर रहा है।

जबानी लफ्फाजी करें सारे नेता,सारी पार्टियां।एक बात का मै चैलेंज करता हूं, सारी पाटियों का इतना संगठित नेटवर्क है,धनबल,भुजबल सब है, कर पाए तो करें खडा कोई इतना बडा आंदोलन जिसे लोगो का इतना व्यापक जनसमर्थन मिले,नही कर सकते।लोगो का इतना व्यापक जनसमर्थन भ्रष्ट नेताओं के बूते नही खडा होगा।

आप सभी मान्यवर घबरा गए है। जनता की व्यापक भागीदारी देखकर , युवाओं के जोष को देखकर, आपकी उम्मीद को झटका लगा है।आप समझ नही पा रहे है कि जनता जाग कैसे गयी?सो आप सभी मान्यवर कुछ भी कहें सूरज की ओर मुह करके थूकने पर अंजाम क्या होगा आप सभी को पता है ना? इसके केन्द्र में अन्ना है,लेकिन ये आन्दोलन पूरी तरह से आज के दौर के युवाओं का है। और इसका रंग अभी आने वाला समय बताएगा। अदम गोण्डवी साहब की एक कविता याद आ रही है कि इस व्यवस्था के बारे मे.....

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत

इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह

जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें

संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में


रवि शंकर मौर्य पत्रकारिता से जुडें है, ये 2006 में हिन्दी से परास्नातक व 2009 में पत्रकारिता से परास्नातक की पढाई पूरी कर पत्रकारिता के पेशे से जुडे।इन्होने दूरर्दशन व जी न्यूज से ट्रेनिंग के बाद खोज इंडिया न्यूज में बतौर प्रोडूसर काम किया।इसके बाद इन्होने राजस्थान के कोटा शहर में दैनिक नवज्योति व दैनिक भास्कर के लिए रिर्पोटर के तौर पर काम किया है। लेखक का समाज व मीडिया के तमाम विषयों पर लेखन रहा है। लेखक से ravism.mj@gmail.com मेल आई डी के जरिऐं सम्पर्क किया जा सकता है।

http://mediakhabar.com/index.php/media-news-views/103-short-media-news-with-rapid-speed-/1848-anna-hajare-and-politicians-.html

आमजन के सपने और भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मुहिम - रवि शंकर मौर्य( Date : 15-04-2011)

आमजन के सपने और भ्रष्ट्राचार के खिलाफ मुहिम - रवि शंकर मौर्य( Date : 15-04-2011)

(रवि शंकर मौर्य /कोटा )

अन्ना हजारे के चेहरे मे लोगो को महात्मा गांधी की छवि नजर आने लगी है। और आनी भी चाहिए,क्योंकि आन्दोलन जिस करवट बैठा,वो खुद अन्ना हजारे ने भी नही सोचा था,अन्ना खुद भी इस बात को स्वीकार करतें है।अन्ना हजारे को जो जन समर्थन मिला वो सोचा ना गया था,इतना बडा आन्दोंलन इतने बडे पैमाने पर विरोध,वो भी आज के युवा वर्ग का जन समर्थन।वो युवा वर्ग जिसके बारे मे ये कयास लगाऐ जाते रहें है अब तक कि ये युवा तो पथभ्रष्ट हैं,सेक्स,कैरियर,बेरोजगारी आदि तमाम चीजों मे उलझा है।वो युवा ना सिर्फ आगे आया बल्कि उसके आगे आकर विरोध करने से सरकार के हाथ पाव फूल गए।लेकिन अन्ना को मिल रहे जन समर्थन से एक बात तो साफ हो गयी है।कि देश के हर नागरिक मे भ्रष्ट्राचार को लेकर एक आग है।और उसका प्रकटीकरण इस रूप में परिणित हुआ।अन्ना के बेदाग व्यक्तित्व के कारण ही लोग अन्ना के झंडे के नीचे अपने अपने विरोध दर्ज कराने का साहस कर सके।लोक पाल बिल को लेकर सुझाव 1967 में ही प्राशासनिक सुधार आयोग की ओर से दिया गया था। और लोकसभा ने इसे 1969 में पारित भी कर दिया था।लेकिन उसके बाद भी ये कानून नही बना।उसके बाद ऐसा नही था कि प्रयास नही किए गए।कुल छोटे बडे 14 प्रयास किए गए।लेकिन सभी बेमाने,जो कानून लोगो का हक है।उन्हे अब तक नही दिया गया।कोई ना कोई बहाना बनाया जाता रहा।आज जब कि इतने बडे बडे घोटाले भ्रष्टाचार उजागर है।उस समय मे ये आन्दोंलन एक महत्वपूर्ण आन्दोंलन है।और समाजसेवी गांधीवादी विचारक अन्ना हजारे निश्चय ही आज के युग के गांधी है।जिन्होंने निस्वार्थ इतना बडा आन्दोलन खडा किया।वैसे तो इस आंदोलन से जुडे और लोग भी इस सफलता के अधिकारी है लेकिन अगर अन्ना इस आन्दोंलन में ना होतें तो तस्वीर ये ना होती।सारा का सारा श्रेय अन्ना हजारे को है लेकिन अभी ये आंदोलन सफल नही हुआ है,अभी तो शुरूआत थी।आगे भविष्य ने अपने गर्त में क्या छुपा रखा है किसी को नही पता होता।अब इंतजार है कि लोक पाल बिल कानून बने,जिसमे भ्रष्टाचार के समूल नाश के लिए निष्पक्ष व पारदर्शी जबाबदेही तय है।हमारे देश के नौकरशाहों के भ्रष्टाचार से पूरा देश हलकान है,और सभी इस बदलाव के लिए एक मंच है।लेकिन अब जब अन्ना का अनशन खत्म और अन्ना का इन्तजार शरू हुआ।तो चंद स्वार्थी कूटनीतिज्ञों की मंशा भी नजर मे आ रही है।ये गाहे बगाहे तमाम पत्र पत्रिकाओं व पोर्टलों के माध्यम से अपनी मंशा व संभावना अपने अपने तर्को के आधार सुना रहे है।लेकिन फिर भी इनकी आवाज कही नही सुनाई दे रही क्योकि ये माहौल अन्ना मय है।और वास्तव में अन्ना हजारे आज के महात्मा गांधी है।ना कोई हिंसा,ना कोई हिंसा की बात और बात भी केवल अपने हक की,और अपने हक की लडाई के 5 दिन मे ही सरकार की सांसे फूला दी।खैर ये समय तो वास्तव मे बदलाव का है।सच में विकास के बारें मे सोचने के लिए ही ये समय है।और एक मंच तले अपनी आवाज को उठाने का समय है।अन्ना के साथ कौन नही खडा है।हर आमोंखास मीडिया युवा सभी अन्ना के साथ खडे है। हमे अपने हक को मजबूत करने के एक मंच पर इसी तरह खडे रहना होगा।क्योंकि मुझे लगता है,शायद ये शुरूवात है,अभी और सर्घष है जिसे पार करना है।

रवि शंकर मौर्य पत्रकारिता से जुडें है, ये 2006 में हिन्दी से परास्नातक व 2009 में पत्रकारिता से परास्नातक की पढाई पूरी कर पत्रकारिता के पेशे से जुडे।इन्होने दूरर्दशन व जी न्यूज से ट्रेनिंग के बाद खोज इंडिया न्यूज में बतौर प्रोडूसर काम किया।इसके बाद इन्होने राजस्थान के कोटा शहर में दैनिक नवज्योति व दैनिक भास्कर के लिए रिर्पोटर के तौर पर काम किया है। लेखक का समाज व मीडिया के तमाम विषयों पर लेखन रहा है। लेखक से ravism.mj@gmail.com मेल आई डी के जरिऐं सम्पर्क किया जा सकता है।






Wednesday, March 9, 2011





Journalism is a river of challenge.where u never stop confronting the tough times ahead . In jornalist's life every day is a ACID test .....

पत्रकारिता शिक्षा और युवा ......... रवि शंकर मौर्य

पत्रकारिता शिक्षा और युवा
(रवि शंकर मौर्य )
हमारे देश मे तकरीबन 20 से ज्यादा भाषाऐं बोली जाती है।कई संस्कृतियां यहां पनपी पोषित और पल्लिवत हुयी।कई बोलियों ने भाषाओं का रूप लिया।और कई विषयों ने नए स्वरूप पाए।पिछले कुछ वर्षो में पत्रकारिता के विषय ने जो नया स्वरूप पाया है।उसने समाचार पत्र व समाचार चैनलों के मालिकों को व्यवसाय का एक नया रास्ता दिखाया है।कुछ मीडिया मठाधीषों को भी ये रास्ता भाया।और तमाम ने पत्रकारिता के व्यवसाय को अपना पत्रकारिता के नाम और अपनी साख को बेचना शरू किया।छोटे बडे मीडिया हाउस व तमाम लोगो ने अपनी पत्रकारिता की दुकानें खोली।और पत्रकारिता की मशीनी विद्या सिखाने का नया धंधा शुरू कर दिया।इस लेख को लिखते लिखते कुल दीप नैयर साहब की एक लाइन याद आ रही है कि ष्ष्जब लोकतंत्र में हर कोई लोकमत को अपनी ओर मोडने का प्रयत्न करे तो ऐसे समय में एक विशेष प्रकार की पत्रकारिता जन्म लेती हैश्श्।आप खुद महसूस करके देखे कितना सटीक व सही लिखा है।जो अक्षरशः आज के परिवेष में सच की तरह दिख रहा है। पत्रकारिता का उदभव 131 ई पूर्व रोम में हुआ था।और आज पूरे विश्व में पत्रकारिता युवाओं के एक पंसदीदा विषय में एक है,और अपने देश में भी।तमाम युवा अपने जीवन को पत्रकारिता के इस ग्लैमर से रंगना सजाना व अपने नाम को बडा होता देखने के लिए इस क्षेत्र में कदम रखते है। लेकिन युवाओं के इस विषय के प्रति के आर्कषण ने पत्रकारिता में एक अजब सा माहौल ला दिया है।उनके इस दिलचस्पी का खासा मुनाफा पत्रकारिता के बाजार ने कमाया है और कमा रहें है।क्योंकि आज की पत्रकारिता कोई सरोकारी पत्रकारिता नही।आज के समाचारपत्रों व समाचार चैनलों को खबर चाहिऐ कम से कम पैसे में। पहले उन्होंने अध्यापकों आदि दूसरें कार्य कर रहें लोगो को साथ लेकर अपने इस उददेश्य को पूरा किया।आज फुल टाइम कम पैसे में काम करने वाले मिल रहे है। और 100 प्रतिशत प्लेशमेंट के नाम पर पैसे लेकर पत्रकारिता को सीखाने की व्यवस्था बनी हुयी दिखाई दे रही है। विश्वविद्यालयों को छोड दे,तो पत्रकारिता के जो छोटे बडें संस्थान हैउनमें ज्यादातर मंहगी फीस लेकर जो सार्टिफिकेट दे रहें है वो कही से एप्रूबड नही होते पूरे के पूरे फर्जी सार्टिफिकेट होते है। अब रही पत्रकारिता के शिक्षा की बात तो इतनी मंहगी और गुणवत्ता विहीन पत्रकारिता की शिक्षा का हाल है। कमोबेस विश्वविद्यालयों में भी पत्रकारिता के स्टूडेंट अपनी शिक्षा से संतुष्ट नही है। इस विषय पर राष्ट्रीय स्तर पर गंभीर बहस की सख्त आवश्यकता बनती जा रही है।इन प्राइवेट कालेजों की मंहगी शिक्षा का विरोध भी हूआ है।लेकिन पत्रकारिता की ताकत व साख ने बदस्तूर इस शिक्षा व्यवस्था को जारी रखा हुआ है।ये तथाकथित चैनल व अखबार अपने मंच के आबाज के जरिए और अपने यहां नौकरी के लालच को दिखा इस मंहगी पत्रकारिता की शिक्षा को बदस्तूर जारी रखें हुऐ है।शिक्षा के गुणवत्ता और उसके प्रमाण पत्र के गुणवत्ता के आधार पर ही किसी संस्थान की फीस होनी चाहिएं।ना किसी लालच के बदले फीस वसूलने की व्यवस्था।शिक्षा के इन्ही व्यवसायीकरण के परिणामतः आज की शिक्षा व्यवस्था मानक स्तरों के पास तो नही पहुचती।बल्कि ग्लैमर और अन्य ना जाने किन मानकों के करीब होती जा रही है। इस व्यवस्था को चलाने वाले खासे धनी व नामी गिरामी संस्थान व लोग है।इसलिए पत्रकारिता के इस नऐ व्यवसाय पर कोइ अंकुश नही लग पा रहा है।कौन किस संस्थान की पोल खोले।क्यों कि चोर चोर मैसेरे भाई पत्रकारिता संस्थान तो कमोबेस सभी छोटे बडे चैनल अखबार व इससे जुडे लोग चला रहें है।और नही चला रहें तो आगे चल कर चलाऐंगें।इसलिए पत्रकारिता बेचने का धंधा बदस्तूर जारी है।समाज में ये पैसा उगाही का एक ऐसा रास्ता है,जो गलत होते हुऐ भी पूरे सम्मान के साथ जारी है।इस व्यवस्था पर लगाम लगनी जरूरी है।

( लेखक पत्रकारिता से जुडें है ये 2006 में हिन्दी से परास्नातक व 2009 में पत्रकारिता से परास्नातक की पढाई पूरी कर पत्रकारिता के पेशे से जुडे।इन्होने दूरर्दशन व जी न्यूज से ट्रेनिंग के बाद खोज इंडिया न्यूज में बतौर प्रोडूसर काम किया।इसके बाद इन्होने राजस्थान के कोटा शहर में दैनिक नवज्योति व दैनिक भास्कर के लिए रिर्पोटर के तौर पर काम किया है। लेखक का मीडिया के तमाम विषयों पर लेखन रहा है। लेखक से ravism.mj@gmail.com मेल आई डी के जरिऐं सम्पर्क किया जा सकता है।)

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Sunday, February 27, 2011

क्यों नही बदला भारत का भाग्य

रवि शंकर मौर्य
अपने देश में गरीबी उन्मूलन की योजनाओं की कमीं नही है।उनके क्रियान्वयन के बाद हमे उनके बेहतर परिणाम ना मिलें।ऐसा भी नही है तो फिर क्यों नही बदल रहा भारत का भाग्य?क्यों नही मिट रही इस देश से गरीबी?इसका सीधा और स्पष्ट सा उत्तर है।नौकरशाही और भ्रष्टाचार इन दोनो बातों ने देश को खोखला कर दिया है। भारत की अन्तर्राष्ट्रीए मंच पर एक उभरती हुयी आर्थिक ताकत के रूप में प्रतिष्ठा है।लेकिन फिर भी आज हम अपने देश में कुछ एक अपवादों को छोड दे तो गरीबी में रह रहें लोगो को कुछ नही दे पाये है।अजादी के इतने वर्षो बाद भी गरीबों के हलात नही बदले। देश का कोई भी गरीब भूख से ना मरें ये जिम्मेदारीं सरकार की होती है।सभी की सुरक्षा का ध्यान रखतें हुऐ समाजिक आर्थिक समानता बनाने का प्रयास भी करना होता है।9 फीसदी के विकास दर वाला भारत आज भी भिक्षावृत्ति के मकडजाल में उलझा है। हमारें के सरकारी तंत्रों ने इनकों सिर्फ बढतें देखने के सिवाए कुछ और खास नही किया।और आज भिक्षावृत्ति एक धंधे की तरह है,जो वर्तमान समाजिक ढांचे से पोषित हो रहा है।वर्तमान सरकार ने गरीबी उन्मूलन के प्रभाव शाली नियन्त्रण के साथ ग्रामीण विकास की कल्पना की और हर साल गरीबी उन्मूलन के लिए आंवटन को बढाया गया। आप जरा सोच कर देखे या अपने पास के दो चार गांवों में जा कर ईमानदारी से देखें।क्या वाकई में इन ग्रामीण विकास की योजनाओं ने कार्य किया है?जमीनी हकीकत तुरंत ही साफ हो जाऐगी।मै गरीबों की बात क्यों कर रहा जब उनसे बत्तर स्थित में मध्य वर्ग है।गरीबों को तो केवल खाना चाहिए,जो वे भिक्षावृत्ति कर पा ही लेतें है। मध्य वर्ग की क्या स्थित है,समाज में ये स्पष्ट है। उन्हे रसोई गैस को लेने से लेकर अपनी सेलरी निकालने के लिए बैंकों आदि हर जगह लाइन लगाना पडता है। उन्हें 24 घंटें बिजली नही मिलती,शहरों में भी कमांेवेश यही हाल है। विद्युत विभाग के चीफ इंजीनिएर,एईएन,जेईएन आदि लोगों से समझना चाहें की ऐसा क्यों हो रहा है। क्या शहर के खर्च के बराबर बिजली आपको नही मिलती। तो उनका जबाब कमाल का होता है। तमाम तकनीकी बहानों से अपने पल्ले को झाड कर अपने को गौरवान्वित महसूस करते है,ये अधिकारी। और जब इनसे ये पूछा जाता है, कि सरकारी भवनों के इतना बिल क्यों बकाया है। तो बोलती बंद हो जाती है, क्यों कि सरकारी भवनों के बिजली बिल उन सरकारी विभागों की कृपा पर ही निर्भर करते है।खैर देश की स्थित इतनी सोचनीय है, कि उसका कोई अन्त नही। गरीबों को तो पता भी नही की उनके लिए गरीबी उन्मूलन के कौन कौन से कार्यक्रम चलाऐ जा रहें है।तो गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों के लाभ उन तक क्या पहुचेंगे। कई राज्य सरकारें इतनी कमाल की है कि वो गरीबी उनमूलन के लिए मिला धन वैसे का वैसे लौटा देतीं है।वे फंड को तथाकथित मद में खर्च करने की जेहमत भी नही उठाती।अब ऐसी अक्षम सरकारों से हम क्या सोचे गए लक्ष्यों को पा सकते है। सच तो ये है,ये सभी कुछ भूख कराती है।गरीबों ने भिक्षावृत्ति की भूख बढा कर देश को खोखला किया तो तथाकथित बडें लोगो ने पूंजी का केन्द्रीकरण कर और बडे बडे घोटालों की भूख में देश को खोखला किया। और देश में बढ रही महगाई से सर्घष करता जूझते मध्य वर्ग की बुरी स्थित। और अपनी जिम्मेदारी से इंकार करते लोग,सतही तौर पर यही कारण है,कि नही बदल रहा है भारत का भाग्य।
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बाज़ार है या की पत्रकरिता - रवि शंकर मौर्य

कोई सभ्यता हो या फिर कोई पेशा,या कि फैशन सबके चर्मोकर्�ा का समय आता है। ये उत्कर्�ा उसके फिर से शुरूवात का भी संकेत होती है। आज कल मीडिया को लेकर शांत बहस चल रही है।�ाांत बहस इसलिए कि सभी मीडिया संस्थान के लोग जी भर कर मीडिया के अधिकारों पर बात करना चाहते है। लेकिन अपने दायरे मे रहते हुए कोई पहल नही कर पा रहा है।ऐसा इसलिए है,क्योंकि आज का पत्रकार वो मजबूर चीज है,जिसे केवल बिकने लायक समाचार देना होता है। और अपनी नौकरी बजानी होती है। और ना कुछ सोच पाता है, ना करना ही चाहता है। अगर नौकरी चली गयी तो क्या खिलाएगा अपने परिवार को। मै बात कर रहा हूं , कि हर मीडिया कर्मी आज बोलना चाहता है। मीडिया के अधिकारों के बारे में क्यों कि पेड न्यूज या कारपोरेट के दलाली में हर पत्रकार नही शामिल है। लेकिन पहले मै कहना चाहूंगा ऐसा क्ंयू होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि आज भारत में पत्रकारिता का बाजार दुनिया में एक बडा बाजार है। कहने का मतलब है,भारत अखबारों का सबसे बडा बाजार है। 107 मिलियन अखबार यानि 10 करोड 7 लाख अखबार रोज बिकते है भारत में। और देश में छोटे बडें मिला कर 417 चैनल। इसके अलावा बेब मीडिया भारत में सशक्त हो रहा है,अपनी आवाज पूरे विश्व में बुलंद कर रहा है। तो ऐसे में भारत मीडिया को लेकर एक बडा बाजार है, लेकिन सच्चाई ये है ,कि बाजार है मीडिया जहां खबरे बिकती है।पत्रकार बिकने वाली खबरे ही चाहता है क्योंकि उसका संम्पादक उससे बिकने लायक खबर ही मांगता है। अच्छा ले आउट,बिकने लायक बिजुअल,अच्छी एडीटिंग और ना जाने क्या क्या ये ही सभी आज की पत्रकारिता है। क्योंकि आज के समाचार चैनलों या फिर समाचार पत्रो की ये ही सच्चाई है,कि पंच लाइन तो खरी खबर या सच्ची खबर हो सकती है,लेकिन उसी समाचार पत्र या चैनल का मालिक या सम्पादक या फिर प्रोडूसर या न्यूज रूम हेड ये कहता मिल सकता है कि अरे यार इनकी खबर क्यों हाईलाइट कर रहें हो। इनसे तो विज्ञापन मिलता है। अब जब विज्ञापन के लालच में एक अखबार का मालिक या संपादक किसी फर्म या किसी व्यक्ति के खिलाफ समाचार छापने से पीछे हटता है। तो स्पष्ट है ये ही लोग पैसे लेकर समाचारों को छापते भी है,और इन्ही लोगो के कारण पत्रकार व पत्रकारिता बदनाम भी हो रही है।गौर तलब है ना तो सभी पत्रकारों की हिम्मत ही होती है पैसा उगाही की ना उनको लोग पैसा देते ही है। ये पैसा उगाही का काम तो एडीटरों या बडे प्रोडूसरों का ही है जो बेकार मे पत्रकारोें के सर अपना पाप मढतें है। और उन समाज के लोगो का भी जो इस खबरों की दलाली करने के लिए एक पत्रकार को पैसे से फासते है। आज कोई ऐसा पेशा नही है। जो साफ दामन हो। हर जगह करप्सन फैला है,पत्रकार को एक मीडिया चैनल या समाचार पत्र क्या देता है। 18 घंटों का काम करवा कर 6 से 25 हजार रूपए की सेलरी। फिर जब उसे समाज के लोगो से कोई पैसे का आफर मिलता है,तो वो ऐसा काम करता है। और पत्रकार भी समाज का हिस्सा होता है। मै ये नही कह रहा कि पत्रकारों द्वारा की जा रही पेड न्यूज सही है।मै ये कर रहा हमारा समाज ही पतन की ओर उन्मुख है। पत्रकारिता ही नही हर पेशा दागदार हुआ है और इन सभी का कारण समाज के नैतिक मूल्यों का पतन है।जिसकी जिम्मेदारी अकेले पत्रकारिता की नही थी।पत्रकारिता भी जिम्मेदार है।उतना ही जितना कि आप हम और हमारे समाज की। हालाकिं सच उजागर है,मै उस सच पर तो चर्चा नही करना चाहता ,कहना ये चाहता हूं , कि पत्रकार संपादक ,प्रोडूसर या फिर मीडिया संस्थानों के मालिक पेड न्यूज से हाथ इसलिए रंगते है। क्योकिं अर्थ के मोह में कौन नही फसता,सभी फसते है, कोई कम कोई ज्यादा । इसलिए आज मीडिया जब कि अपने चर्मोत्कर्ष पर है , मीडिया के लोगो को अपने समाज के बारे मे सोचने की ज्यादा जरूरत है। और वो भी खास कर युवाओं को क्योंकि मीडिया के युवाओं की जिम्मेदारी बढ जाती है अपने समाज को लेकर। पेड न्यूज को खत्म करना है,तो युवाओं को ही कुछ करना पडेगा।

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Tuesday, February 15, 2011

आम सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता

पत्रकारिता के माएने बदल चुके है,ये बात अक्सर सुनने को मिलती है।जब कभी पत्रकारिता के महारथियों से आज की पत्रकारिता के विषय में पूछा जाता है।तो उनका यही जबाब होता है,कि पत्रकारिता में विज्ञापन,पैसे,बाजार का महत्व बढा है।किन्तु पत्रकारिता आज भी आम सरोकारों को लेकर चलती है।लेकिन सवाल ये है, कि क्या आज पत्रकारिता के माएने बदल चुके है?क्या वाकई पत्रकारिता के मूल्यों मे बदलाव हुआ है? नही साहब पत्रकारिता आज भी जन सरोकारों के साथ है। पत्रकरिता के ना तो मानक बदले है।और ना ही बदलेगें क्योंकि अगर पत्रकारिता के मानक बदल गए तो फिर वो पत्रकारिता नही रह जाएगी।ऐसा ज्यादातर मीडिया मठाधीष कहते मिलेगें,लेकिन सच्चाई इसके विपरीत है।पत्रकारिता में बाजारबाद बढा है,दिखावा बढा है। आज पत्रकारिता जगत का परिवेष,मूल्य,आदर्श,और वातावरण सभी में अमूलचूक परिवर्तन हुए है। लोगो ने आज पत्रकारिता को अपने निहित स्वार्थो के लिए उपयोग करना शुरू कर दिया है।आज पत्रकारिता एक बडा बाजार है,उस बाजार ने तमाम पत्रकारिता के महारथियों का जमीर खरीद लिया है।वे वही बोलते,लिखते,सोचते व समझते मिलतें है,जो उन्हे बाजार दिखाता है।अध्ययन,स्वाध्याय से दूर ये पत्रकार क्या सोचेगें पत्रकारिता व उसके मानकों के बारे मे?आज अखबारों व चैनलों पर पूजीपतियों का कब्जा है,और वे अपनी पूंजी को बढानें के निहित स्वार्थो को लेकर पत्रकारिता का दुरूपयोग करते है। पत्रकारिता के धौस में ना जाने अपने कितने आर्थिक व अन्य मंसूबों की पूर्ति करते है। लेकिन कुछ और बडे प्रश्न है कि आज के समाचार पत्र व चैनल जो कुछ छाप रहें है या फिर प्रसारित कर रहें है क्या उसे पत्रकारिता कहा जा सकता है? पत्रकारिता से जुडें लोगों की स्थित हालात देखकर,क्षेत्रीय व स्थानीए पत्रकारिता की दुर्दशा देख कर क्या पत्रकारिता के बदले मायनों को क्या नही समझा जा सकता?
अगर ईमानदारी से यर्थाथ का चश्मा लगा कर देखने समझने का प्रयास किया जाए तो सभी कुछ आइने की तरह साफ है।आज की पत्रकारिता कोई समाज को दिशा देने चेताने वाली पत्रकारिता नही है।व्यवसायीकरण के दौर में एक अखबार दूसरे अखबार से, व एक चैनल दूसरे चैनलों से गलाकाट प्रतियोगिता कर रहा है।सर्कुलेशन,टी आर पी व विज्ञापन के लिए वे क्या कुछ नही करते।
सभी पत्रकार कमोबेस इन बातों को जानते समझते है,और सभी इन अखबारों व चैनलों के व्यवसायी मंसूबों को आम सरोकारों को नजर अन्दाज कर पोषित करते है।ज्यादातर समाचार पत्रों मे आधे से ज्यादा अखबार विज्ञप्तियों व विज्ञापनों से भरा मिलता है।व समाचारों की गुणवत्ता में कमी साफ दिखाई देती है। पेड न्यूज,कृपा राशि आदि के आंचल में कैसे और कौन सी न्यूज विश्वसनीए होगी। सोचने का विषय है,आज ना सिर्फ पूंजीपति ही बल्कि राजनेता भी अपने मंसूबों को पत्रकारिता के माध्यम से पोषित करते है।इन आकांछाओं की पूर्ति लिए चैनल मालिक,डेस्क इंचार्ज,संपादकों,रिर्पोटरों आदि को कृपा राशि का भुक्तान किया जाता है। आज की संवेदना विहीन पत्रकारिता से क्या किसी मानकों या मूल्यों की अपेछा की जा सकती है।जब संवेदना के विषयो को चटखारें लगा कर,सनसनी बना कर पेश करना आज के युग की पत्रकारिता है। और उस संवेदना विहीन खबर की जिम्मेदारी बाई लाइन या साइन आफ के लिए ही समाज,देश व पत्रकारिता किसी के मर्यादाओं को ना ध्यान रख कर लिया जाए। तो स्थित आम सरोकारों से दूर होती पत्रकारिता को स्पष्ट कर देती है।

http://mediamanch.com/Mediamanch/Site/HCatevar.php?Nid=1119

http://www.mediakhabar.com/index.php/media-article/media/1662-journalism-public-interest.html