Tuesday, February 8, 2011

नहीं बची है भारतीय मीडिया में गरिमा

पिछले कुछ वर्षो में भारतीय मीडिया ने जो कुछ झेला वो शायद किसी और देश की मीडिया ने नहीं झेला होगा। खबरों की गरिमा में कमी, पेड न्यूज, मीडिया के लोगों की तमाम अपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता और ना जाने क्या-क्या पिछले कुछ सालों में मीडिया की उपलब्धियां रही। भारतीय मीडिया के लोग अपने खबरों का सबसे बड़ा ऐविडेंस तस्वीरों को व विजुअल को मानते हैं। किन तस्वीरों को प्रकाशित करना है, किन विजुअल को ऑन एयर करना है, इसकी समझ मीडिया के काम कर रहे लोगों में शायद नहीं है या आवश्यकता से अधिक मार्डन हो गयी है भारतीय मीडिया। तभी तो सहारा के लोगों द्वारा समाचारों में गालियों का इस्तेमाल और ईटीवी ब्लू फिल्म जैसे विजुअल आन एअर कर दे रहा है। लाइव रिर्पोटिंग के नाम पर फेक विजुअल आज भारतीय मीडिया की हकीकत हो गयी है।


कहीं शहर में बाढ़ आ गयी तो यदि उस घटना के विजुअल भी चैनल के पास नहीं है, तो भी उस खबर को बिना विजुअल के नहीं प्रसारित करते। पुराने फुटेज में तोड़ मरोड़ कर कहने का मतलब है, पुराने लाइब्रेरी फुटेज को इतना एडिट कर देते है कि कोई पहचान ना पाए और इस तरह के विजुअल आन एयर कर दिए जाते हैं। सभी चैनल ऐसा कर रहे हैं, मैं किसी एक चैनल की बात नहीं कर रहा। ये सभी चैनल अपने समाचार स्रोतों और एपीटीएन, राइटर आदि की खबरों के अलावा यू टयूब के विजुअल का भी इस्तेमाल कर लेते हैं। हादसों की रिर्पोटिंग मे अगर विजुअल कम समय के हैं तो उसे लूप में लगा कर तरह-तरह के वीडियो इफेक्ट डाल कर उसे घटना के बराबर भयावह बनाकर लाइव पेश करते हैं। खास कर वर्ल्‍ड न्यूज के कार्यकमों में दुनिया की कमोबेश झूठी तस्वीरें टीवी पर देखने को मिलती हैं।

मै कहना ये चाहता हूं क्यूं हम तस्वीरों को ही खबर बनाते जा रहे हैं? मीडिया इतनी सशक्त हुई कि आज फोटो जर्नलिज्म का युग है। मैं ये नहीं कह रहा फोटो छापना गलत है। कहना ये चाहता हू कि बिना सोचे बिचारे कोई फोटो छापना गलत है। किस फोटो का क्या इम्पैक्ट समाज के उपर क्या पड़ रहा है? कौन सी फोटो जरूरी है? इन सब बातों का ध्यान रखना जरूरी है। कितने ही अखबारों ने भोपाल गैस कांड की प्रतीकात्मक तस्वीरें छापी थीं। कारण वे मरने वाले लोगों का अनादर नहीं करना चाहते थे। क्या इसी गरिमा का पालन हादसों की रिर्पोटिंग में नहीं की जा सकती? किसी मंदिर के भगदड़ या फिर किसी भीषण दुर्घटना में मरे लोगों के विजुअल या कि किसी आपदा में मरे लोगों की लाशें दिखा कर हम पत्रकारिता के किस धर्म का पालन कर रहे हैं? क्या हम लाशों की वीभत्स तस्वीरें छापने से ही अपना पेट पाल रहे हैं। और इनको छाप कर कौन सी खबर के प्रमाण की पुष्टि होती है, जो ऐसे फोटो ना छाप या विजुअल के बिना समाचारों को प्रसारित कर या प्रतीक का इस्तेमाल करके नहीं होती।

समाचारों की हड़बड़ी या बुलेटिन की जिम्मेदारी में हम भूल जाते है अपने पत्रकार धर्म की जिम्मेदारियों को। किसी बुलेटिन की कोई खबर आन एयर नहीं हो पाई या फिर समय से अखबार का पेज नहीं छूटा, इन बातों की टेंशन तो हम रोज ही लेते हैं। अपने जिम्मेदारियों को जरा सा भी अपना लें तो देश समाज की जो दशा होती जा रही है, उसमे बदलाव धीरे-धीरे दिखाई देने लगेंगे। जरा ईमानदारी से सोचें शोकग्रस्त परिवारों, बुरी हालत की लाशों के विजुअल दिखा कर क्या हम अपने स्वतंत्रता का गलत फायदा नहीं उठा रहे? या कि हम भी उतने ही क्रूर नहीं होते जा रहे? क्या हम हादसों, दुर्घनाओं की रिर्पोटिंग मे गरिमामय परम्परा का पालन नहीं कर सकते। अगर नहीं और यही है आज की पत्रकारिता तो भारतीय मीडिया में नहीं बची है गरिमा।

लेखक रविशंकर मौर्य कोटा में पत्रकार हैं.

http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/1009-2011-02-04-07-48-33.html

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