Tuesday, February 8, 2011

कैसे-कैसे कार्यक्रम, कैसी ये पत्रकारिता!

टीआरपी को लेकर टीवी चैनल कितने खासे उत्साहित व हर वो कार्य करने को तैयार रहते है, जिससे कि उनके चैनलों की टीआरपी बढ़े। कुछ दिन पहले एक चैनल ने एक प्रोग्राम दिखाया था। ज्योतिषी, वैज्ञानिक व तर्कशास्त्री को लाइव लेकर ये कार्यक्रम बना था। इसको देख कर मुझे जितना गुस्सा आ सकता था, आया था। प्रोड्यूसर ने समाज सेवा के मंशा से कार्यक्रम को बनाया था। कुछ दिनों पहले इसी विषय पर एक कार्यक्रम तो स्पेशल कार्यक्रम था। समाज सुधारने की मंशा तो खैर तारीफ की चीज है। लेकिन इन प्रोगामों को लेकर मैं इस बात से इत्तेफाक नहीं रखता कि ऐसे कोई कार्यक्रम समाज में कोई प्रभाव डालते हैं। हां अगर उस कार्यक्रम की कोई चीज प्रभाव डाल रही थी, तो शायद उस कार्यक्रम मे एंकर, ज्योतिष व तर्कशास्त्री जिस तरह से तर्क के बहाने झगड़ा कर रहे थे, यही बात सबसे ज्यादा प्रभाव डाल रही थी। और वो भी इस बात ने बच्चों के दिमाग को ज्यादा प्रभावित किया होगा।


आज समाज बदल चुका है। इस बात का प्रभाव भी टेलीविजन कार्यक्रमों में साफ दिख रहा है। वर्षों पहले कभी हम समाज का आईना जिसे समझते थे वो बुद्धू बक्सा आज होशियार हो गया है। और समाज को अपने हिसाब से चला रहा है। एक और चैनल के एक कार्यक्रम की बात करूं तो साहब ये चैनल खासा नामी है। और अपने घटिया प्रोग्रामों के बावजूद टीआरपी को लेकर नं 1 की पोजिशन पर बना रहता है। इस चैनल के खिलाफ नहीं हूं मैं। बल्कि कहना ये चाहता हूं, कितना घटिया कार्यक्रम दिखाते हैं आज के सभी चैनल। ये कार्यक्रम भी एक तर्कशास्त्री, तांत्रिक व ज्योतिषी का था, जो कई एपिसोडों में तंत्र को आडम्बर बताते हुए एक स्वामी, तांत्रिक व ज्योतिषी को लेकर बना था। इसमें में वही बात है एंकर, ज्योतिषी, तर्कशास्त्री सभी लड़ते से लग रहे थे। मैं ऐसे कार्यक्रमों के लिए प्रोड्यूसर या किसी और को दोषी नही मानता। क्योंकि मैं जानता हूं आज के इन न्यूज चैनलों के अन्दर की स्थिति कारपोरेट कल्चर के नाम पर शोषण का इतिहास बनाने वाले ये चैनल और दिखा ही क्या सकते हैं। जब न्यूज रूम में दुनिया भर की राजनीति होगी तो कैसे कार्यक्रम बनेंगे। ये चैनल भले ही इस कार्यक्रम को मिशन की तरह अपनाकर, उसे अपने चैनल पर चला कर भले ही अपनी पीठ ठोंक लें। लेकिन सच्चाई यही है कि आज क्या कुछ ये चैनल परोस रहे हैं। इस पर सोचने की जरूरत है।

ऐसा नही है कि अच्छे कार्यक्रम या अच्छे विषयों पर कार्यक्रम नहीं बनते। बनते हैं और उन्हें दर्शक इतना देखते हैं कि रिकार्ड टूट जाता है। पर चैनलों पर ज्यादातर सीरियल या कार्यक्रम घटिया होते हैं। यही कारण हैं आदमी का हाथ रिमोट पर ही रहता है। और इन घटिया प्रोग्रामों को बनाने वालों से अगर इन कार्यक्रमों के बारे में पूछा जाए तो अपने कार्यक्रम की तारीफ के पुल बांधते नही थकेंगे। इनका कहना रहता है लोग देखना चाहते है तो हम इस तरह के कार्यक्रम बनाते हैं। अरे ये खासे गदहे होते हैं जो ये राग अलापते हैं। आज तक किसी भी अच्छे विषय पर बना कोई भी सीरियल या कोई कार्यक्रम ऐसा नहीं हुआ जिसे लोगों का प्यार ना मिला। युवा, बुर्जुग, महिलाऐं, बच्चें सभी ने सराहा है ऐसे कार्यक्रमों को, जो अच्छे विषयों पर बने। लेकिन अयोग्य लोगों की माया है कि ऐसे कार्यक्रम देखने को मिलते हैं टीवी पर। कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, जो चैनलों के अन्दर की राजनीति में अपना सारा ज्ञान भूल जाते हैं। वे ऐसे कार्यक्रमों को लेकर कोई भी राय नही रख पाते। कुल मिला कर तो आज की इलेक्‍ट्रानिक पत्रकारिता जब प्रभु चावला, बरखा दत्‍त को बेच सकती है तो किसी को भी बेच सकती है। जो आर्दशवादी हैं कहने का मतलब पत्रकार हैं, इस सिस्टम में फिट नहीं बैठते। तो दलालों व अपनी नौकरी बजाने वाले उल्लुओं से कैसे प्रोग्राम देखने को मिलेंगे। वे कैसी पत्रकारिता की हम उम्मीद कर सकते हैं।

लेखक रविशंकर मौर्य कोटा में पत्रकार हैं.

http://vichar.bhadas4media.com/media-manthan/921-2011-01-05-07-01-38.html